Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    आचार्य विनोबा भावे ने सुझाए थे नैतिक समाज के नियम.., यहां पढ़ें ‘अभिधेयं परम् साम्यम्’ का सही अर्थ

    By Abhishek AgnihotriEdited By:
    Updated: Sun, 17 Apr 2022 09:49 AM (IST)

    भूमिहीनों किसानों के लिए मसीहा बनकर उन्हें स्वावलंबन की दिशा देने वाले आचार्य विनोबा भावे ने नैतिक समाज के नियम में ‘अभिधेयं परम् साम्यम्’ का सूत्र दिया यानी का शक्ति का सही उपयोग ही जीवन को सही दिशा देता है।

    Hero Image
    आचार्य विनोबा भावे ने समझाया नैतिक समाज का नियम।

    कानपुर, फीचर डेस्क। स्वाधीनता आंदोलन में सामाजिकता और परस्पर समानता का क्रांतिबीज रोपित किया था आचार्य विनोबा भावे ने। भूदान आंदोलन (प्रारंभ 18 अप्रैल 1951) के जरिए असंख्य भूमिहीन किसानों के लिए स्वावलंबन का स्वप्न पूरा करने वाले विनोबा भावे ने सुझाए थे नैतिक समाज के नियम...

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    मनुष्य जीवन का ध्येय है परम् साम्य की प्राप्ति। ‘अभिधेयं परम् साम्यम्’। अभिधेय कुल जीवन के चिंतन का विषय है। जिस दिशा में जीवन के समूचे चिंतन को ले जाना है, जिसमें चिंतन सर्वस्व लगाना है, इंद्रियों को मोड़ना है, जिसको लक्ष्य करना है, उसी को ‘अभिधेय’ कहते हैं। हमारा अभिधेय ‘परम् साम्य’ है। परम् साम्य केवल आर्थिक या सामाजिक वस्तु नहीं रहती। इन दोनों से बढ़कर एक साम्य है, मन का संतुलन या मानसिक साम्य, लेकिन इन तीनों से भी परे एक चीज है, जो ‘परम् साम्य’ कहलाती है। परम् साम्य यानी ब्रह्म। इसलिए हमारा अभिधेय ब्रह्म प्राप्ति हुआ।

    हमें आर्थिक, सामाजिक या मानसिक साम्य स्थापित करना है। उन्हें स्थापित करने से उस परम् साम्य का दर्शन होगा, जो पहले से ही मौजूद है, किंतु हमारे अंधत्व के कारण दिखता नहीं था। हमने गीता को साम्ययोग नाम दिया है और बताया है कि परम् साम्य की प्राप्ति हमारा लक्ष्य है। परम् साम्य यानी जहां जड़-चेतन का भेद भी नहीं रहता है। साम्ययोग मानव-मानव में भेद नहीं करता।

    प्रत्येक मनुष्य में समान आत्मा है, इसलिए सबको जीने के समान अवसर भी मिलने चाहिए। व्यक्ति की बौद्धिक योग्यता को देखे बिना हम उसे जमीन, मकान, रोटी, आरोग्य, शिक्षा आदि जीवन के साधन मुहैया करें, यह आज के युग की और प्राचीन अद्वैत के सिद्धांत की मांग है। हम लोग सत्य विचार पर समाज की रचना करना चाहते हैं। भगवान ने हमें जो बुद्धि, शक्ति और दौलत दी है, वह समाज की सेवा के लिए है। उसका स्वतंत्र भोग करना उचित नहीं। समाज को समर्पण करने के बाद ही हम उसे भोग सकते हैं। उपनिषद् में कहा गया है कि यह समस्त जगत ईश्वरमय है और समर्पण करके ही प्रसाद के रूप में उसका भोग करना चाहिए।

    अपनी बुद्धि के मालिक हम नहीं, भगवान हैं और चूंकि हमारे सभी गुण समाज के लिए हैं इसलिए हमें चाहिए कि अपने पास की सारी शक्तियों को ईश्वर की देन मानें और समाज को अर्पण कर दें। हम तो अपने शरीर के भी मालिक नहीं, उसके ट्रस्टी मात्र हैं। साम्ययोग कहता है कि संपत्ति किसी भी रूप में क्यों न हो, उसके मालिक हम नहीं हैं। तुलसीदास जी ने यही कहा है, ‘संपति सब रघुपति कै आम्ही’ हर संपत्ति ईश्वर की है।

    आज तक लोग अपने को संपत्ति का मालिक मानते आए। उसमें हितों का विरोध निर्मित होता है। किंतु जहां ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार आता है, वहां पूरी वैचारिक क्रांति होती है। हमारे पास जितनी भी शक्तियां हैं, समाज की सेवा के लिए हैं, व्यक्तिगत स्वार्थ साधने के लिए नहीं। समाज के हित के लिए सतत् प्रयत्न करना ही हमारा स्वार्थ है।

    मेरी विचारधारा के मुख्य चार अंग हैं। एक है उद्देश्य, जिसे मैंने नाम दिया है ‘साम्ययोग’। दूसरा है तत्वज्ञान। तत्वज्ञान में मैं समन्वय चाहता हूं। तीसरा है सामाजिक, आर्थिक ध्येय। यह है ‘सर्वोदय’ और उसे अमल में लाने की जो पद्धति है, वह है ‘सत्याग्रह’।

    ‘सत्याग्रह’ जीवन पद्धति है। उसके आधार पर जो समाज रचना खड़ी होगी, वह ‘सर्वोदय’ होगा। उसके लिए दुनिया में जो भिन्न-भिन्न चिंतन व तत्वज्ञान चलते हैं, उनके बीच का विरोध टालकर ‘समन्वय’ करना होगा। यह सिद्धांत सभी विवादों को खत्म करने वाला है। इन तीनों के फलस्वरूप व्यक्तिगत तथा सामाजिक चित्त की समता प्राप्त होगी। उसे मैंने ‘साम्ययोग’ नाम दिया है। साम्ययोग गीता का शब्द है, समन्वय वेदांत का है और सर्वोदय शब्द आधुनिक विज्ञान का है, जो पश्चिम से प्राप्त हुआ है। हमने अहिंसा की शक्ति से स्वातंत्र्य प्राप्त किया है, किंतु यह निश्चित समझिए कि अब हम अगर दूसरा कदम, आर्थिक, सामाजिक समानता कायम करने का नहीं उठाते तो हमारा स्वातंत्र्य खतरे में है।

    समाज में उच्च-नीचता के भेद रहें, तो समाज बनता ही नहीं। हम समाज को नैतिक समाज बनाना चाहते हैं, जिसमें हर व्यक्ति अपनी शक्ति समाज को समर्पित करेगा। स्वराज्य के बाद हमें साम्ययोग की स्थापना का आदर्श सामने रखना होगा। इसी को हमने सर्वोदय कहा है। साम्ययोग के कारण आर्थिक क्षेत्र में भी क्रांति होती है। नैतिक मूल्यों के समान आर्थिक क्षेत्रों मे भी श्रम का मूल्य समान होना चाहिए। आज शारीरिक काम की अपेक्षा बौद्धिक काम की मजदूरी ज्यादा दी जाती है। उसकी प्रतिष्ठा भी ज्यादा होती है, लेकिन इस तरह का फर्क बिल्कुल बेबुनियाद है। चूंकि साम्ययोग का विचार आत्मा की समता पर निर्भर है, इसलिए आर्थिक क्षेत्रों में भी वह कोई भेद स्वीकार नहीं कर सकता। समाज में हर एक की सेवा का प्रकार भिन्न हो सकता है, पर उसका आर्थिक मूल्य समान ही होना चाहिए। इसी तरह राजनैतिक क्षेत्र में भी हमारे मूल्य बदल जाएंगे। हम न सिर्फ शोषणरहित, बल्कि शासनमुक्त समाज की रचना चाहते हैं। साम्ययोग की कल्पना के अनुसार, शासन गांव-गांव में बट जाएगा। यानी गांव-गांव में अपना राज होगा, मुख्य केंद्र में नाममात्र के लिए सत्ता होगी। इस तरह हम शासनमुक्त समाज की ओर बढ़ेंगे।

    साम्ययोग आर्थिक, नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन लाना चाहता है। इसी को क्रांति कहते हैं। आजकल लोग हिंसा को ही क्रांति समझते है। किंतु जहां बुनियादी चीजों में क्रांति नहीं, वहां ऊपर-ऊपर के परिवर्तन को क्रांति कहना गलत होगा। क्रांति तभी होती है, जब हम अपने नैतिक जीवन में परिवर्तन करते हैं। क्रांति तब होती है, जब उसका त्रिकोण होता है। प्रथम व्यक्तिगत जीवन में परिवर्तन होता है। फिर विचार परिवर्तन होता है और फिर समाज परिवर्तन होता है। ये तीन जब होते है तब क्रांति होती है।

    भूदान यज्ञ का पहला कदम है ‘दान’ और अंतिम कदम है ‘न्यास’। दान का अर्थ है देना, ‘संविभाग’ यानी अपने पास जो चीज है, उसका एक हिस्सा समाज को देना। नित्य दान किसी खास मौके पर करने का धर्म नहीं, सतत् करने का है। ‘न्यास’ में मालिकी का पूरा विसर्जन है। मैं अपने पास संग्रह रखूंगा ही नहीं। जो कुछ होगा गांव को दे दूंगा। फिर समाज की तरफ से मुझे जो मिलेगा, वह मैं लूंगा। मै नारायनाश्रित बनूंगा। न्यास यानी समाज में लीन हो जाना, व्यक्तिगत मालिकी मिटाकर समूह की शरण लेना। (विनोबा साहित्य खंड 13, 15 से साभार)