परिचर्चा तीन
काम हिन्दी में हुआ भी है, उसे अंग्रेजी के मुकाबले महत्व नहीं दिया जाता। आज हिन्दी में शोध की दुर्ग
काम हिन्दी में हुआ भी है, उसे अंग्रेजी के मुकाबले महत्व नहीं दिया जाता।
आज हिन्दी में शोध की दुर्गति के लिए कौन जिम्मेदार है ? यों तो समूचा परिवेश ही कितना अच्छा है, इसे आप देख ही रहे हैं पर यदि जिम्मेदारी बतलानी ही है तो प्रकट में तो हिन्दी के प्रोफेसर, विभाग ही प्रमुख जिम्मेवार माने जा सकते हैं। वे अपने साम्राज्य के विस्तार में लगे हुए हैं। अधिक से अधिक अपने लोगों को विश्वविद्यालय में कैसे भरा जाए, इसकी जुगत में लगे रहते हैं।
सुधार कैसे आवे ? सुधार तो ईमानदारी से ही आ सकता है। इस ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं है। मैं जैनेन्द्रजी के पास गया, मैने उनसे पूछा कि क्त्राति कैसे होगी? उनका जवाब था
- साधारण जनता चाहती है कि महावीर और बुद्ध आएं, क्त्राति के लिए। इसका अर्थ यही है कि जब समर्थ क्त्राति के सूत्रधार बनने आएंगे और आम आदमी में ईमानदारी की चाहत होगी तो ही क्त्राति आएगी।
डॉ वागीश शुक्ला,
लेखक एवं प्राध्यापक, भारतीय ज्ञान के जानकार
मैं गणित का प्राध्यापक रहा हूं। हिन्दी से मेरा संबंध कुछ समय के लिए महात्मा गाधी हिन्दी विवि से जुड़ने की वजह से रहा। शोध की बात की जाए तो शोध या पढ़ाई का संबंध बुनियादी श्रृजन से रहा है। किसी भारतीय भाषा में शोध तो संभव है लेकिन वर्तमान विश्वविद्यालय की शिक्षा पद्धति प्राचीन शिक्षा पद्धति से कटी हुई है। इसके बाद शोधार्थी के सामने जो संदर्भ की सामग्री है, वह अंग्रेजी में है या अनुवाद करके हिन्दी में लाया गया है। इस तरह बिना योजना के, बिना समझे बुझे हिन्दी में शोध को प्रोत्साहित कैसे किया जा सकता है? भारतीय हिन्दी भाषा में यदि चिन्तन होगा, उसके बाद ही शोध हो सकता है। इससे भाषा का महत्व भी बढ़ेगा। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हिन्दी भाषा से जुड़ा सवाल है। संस्कृत में अंग्रेजी से अच्छी परंपरा रही है। इसमें पहले से अंग्रेजी से अच्छा शोध रहा है। फ्रास और जर्मन की परंपरा भी समृद्ध रही है लेकिन वहा भी अंग्रेजी का प्रभूत्व बढ़ा है। चीन और जापान जैसे देश जो अंग्रेजी से कटे रहे, वे भी अंग्रेजी को अब धीरे-धीरे अपना रहे हैं।
हिन्दी का महत्व इसलिए भी कम हुआ है क्योंकि हिन्दी में नौकरिया नहीं हैं। नौकरी नेट पास करने से मिलती है, शोध से नहीं मिलती। पीएचडी पर नहीं मिलती। शोध से जुड़ा सवाल यह है कि आपके शोध का स्तर क्या है? आपके शोध कार्य का महत्व तब माना जाएगा, जब आपकी बात को पूरी दुनिया में स्वीकारा जाए। हिन्दी की बात पूरी दुनिया में तब जाएगी जब पूरी दुनिया इस भाषा को जानेगी। यदि आपने समाज शास्त्र में हिन्दी में पीएचडी लिखी है, अब जो हिन्दी नहीं जानता वह आपके लिखे को क्यों पढ़ना चाहेगा?
भाषा को तरक्की उस भाषा के विद्वानों के माध्यम से मिलती है। हिन्दी के विद्वानों के माध्यम से हिन्दी का विस्तार होगा, यदि हिन्दी वालों को ही बढ़ावा नहीं मिलेगा फिर हिन्दी का विस्तार कैसे होगा? हिन्दी वालों को विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अलावा कहीं नौकरी आसानी से नहीं मिलती। हिन्दी की नौकरी हिन्दी साहित्य में है। कोई हिन्दी में पीएचडी करके क्या करेगा? जब उसका नौकरी के लिए साक्षात्कार अंग्रेजी में लिया जाएगा।
सिर्फ हिन्दी की किताबें पढ़कर आप अच्छा शोध नहीं लिख सकते। अंग्रेजी में ऐसा हो सकता है। हिन्दी में श्रृजन नहीं है, संस्कृत में है तो उसे हिन्दी में लाया नहीं गया। आज हिन्दी के विद्यार्थी को हिन्दी में लिखा बीस साल पहले का साहित्य पता नहीं होगा। पढ़ाई नहीं होगी, परिश्रम नहीं होगा, बाहर की चीजें नहीं देखेंगे तो परिस्थितिया नहीं बदलेंगी।
शोध उन्हीं भाषाओं में होना चाहिए, जिसे लोग पढ़ रहे हैं। जर्मन और फ्रेन्च में शोध की लम्बी परंपरा रही है लेकिन वे भी अब फ्रेन्च जर्मन में पर्चा नहीं लिख रहे हैं। फिर हिन्दी क्या करेगा? हिन्दी में पढ़ना और पढ़ाना जरूर शुरू होना चाहिए लेकिन अंग्रेजी का परित्याग करना उचित नहीं है। उत्तर प्रदेश में एक समय यह स्थिति थी कि एमए कर लिया लेकिन एबीसीडी भी ठीक से नहीं बोल सकते।
ललित कुमार,
संस्थापक निदेशक: कविता कोश
मुझे ऐसे शोधार्थी से मिले जमाना बीत गया ़जो हिन्दी भाषा में हिन्दी साहित्य के अलावा किसी और विषय में शोध कर रहे हों। तकनिकी विषयों में हिन्दी में शोध की स्थिति खास तौर पर खराब है। सच्चाई यह है कि महाविद्यालय के स्तर पर ही हिन्दी में पढ़ाई बंद हो जाती है। आज कितने लोग हिन्दी में महाविद्यालयों में स्नातक कर रहे हैं? जब हिन्दी में वे पढ़ेंगे नहीं फिर हिन्दी में शोध का सवाल कहा आता है? आप विज्ञान, प्रबंधन, सूचना प्रोद्योगिकी, विधि की पढ़ाई हिन्दी में नहीं करते फिर शोध हिन्दी में कैसे होगा? जो इक्का दुक्का लोग कर रहे हैं, वे अपवाद हैं।
इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि समाज को लगता है कि हिन्दी का अपना कोई बाजार नहीं है। अंग्रेजी ने जिस प्रकार खुद को फैलाया, वह अंगेजी नहीं कर पाई। हिन्दी का क्षेत्र सीमित है। हिन्दी के साथ प्रयोग को लेकर हिन्दी के विद्वानों का रवैया बड़ा सख्त रहा है। उन्हें डर है कि प्रयोग किया तो हिन्दी का स्वरूप बिगड़ जाएगा। इसका परिणाम यह हुआ कि जिसे लोग हिन्दी कहते हैं, वह एक कठीन भाषा हो गई है।
अंग्रेजों ने इस देश पर राज किया। उनके जाने के बाद भी अंग्रेजी का प्रभाव हमारे ऊपर इतना रहा कि अंग्रेजी बोलने का अर्थ हम पढ़ा लिखा होने से लगाते हैं। हिन्दी बोलने वाला कितना भी विद्वान हो, उसे पढ़ा लिखा नहीं माना जाता। उसे ना बाजार महत्व देता है और ना समाज।
कभी सरकारी दस्तावेजों को पढि़ए। यह समझना मुश्किल होगा कि वहा क्या कहा जा रहा है?
हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसका मानकीकरण नहीं हुआ। भाषा सब जगह एक सी इस्तेमाल होनी चाहिए। वर्तनी का मानकीकरण सुनने में एक साधारण सी बात लग सकती है, लेकिन मानकीकरण के बाद ही हिन्दी को तकनीक से जोड़ा जा सकता है। तकनीक हमेशा मानक भाषा को ही समझता है। अंग्रेजी में यह समस्या नहीं आती।
ऑक्सफोर्ड शब्दकोश जब कुछ नए शब्दों को शब्दकोश में शामिल करता है तो पूरी दुनिया में उन शब्दों की चर्चा होती है। हिन्दी में ऐसा कोई शब्दकोश नहीं है, जिसमें समय समय पर इस तरह शब्द शामिल किए जाते हों। अंग्रेजी अपने मानकीकरण के कारण कम्प्यूटर की भाषा बन पाई और यदि हिन्दी कम्प्यूटर के साथ दो कदम चल पाई है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उसका थोड़ा मानकीकरण हुआ है।
हिन्दी का मानकीकरण करते हुए इस बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि हिन्दी, हिन्दी की तरह ही हो। वह बोलते हुए दो भाषाओं का मिश्रण ना लगे। जो भाषा आज के समय में कम्प्यूटर, लैपटॉप, टेबलॉयड, मोबाइल पर नहीं होगी, उसका बचना मुश्किल है। हिन्दी को इन माध्यमों पर सहज बनाने के लिए उसका मानकीकरण जरूरी है।
हिन्दी भाषा में शोध के गिरते स्तर के लिए हिन्दी भाषा में शोध कर रहे छात्र और शोध करा रहे प्राध्यापक दोनों की जिम्मेवारी बनती है। आज जो छात्र
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