बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
लोगो : बकझक - विवेक त्रिपाठी ::: हमेशा ही विशिष्ट और कुछ अलग-से पात्रों का इण्टरव्यू लेने की ट
लोगो : बकझक
- विवेक त्रिपाठी
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हमेशा ही विशिष्ट और कुछ अलग-से पात्रों का इण्टरव्यू लेने की टोह में रहने वाले हमारे स्टार पत्रकार आवारा जी लॉकडाउन से उपजे हालात में म़जदूर वर्ग की पीड़ा से बड़े दु:खी थे। हाइवे और अन्य मार्गो पर म़जदूर वर्ग की महिलाओं, पुरुषों और छोटे-छोटे बच्चों को तपती हुई सड़क पर नंगे पैर यात्रा करते देखकर बहुत गहरे अपराधबोध के साथ आवारा जी ने अपने चप्पल युक्त पैरों पर एक ऩजर डाली और जाने क्यूँ ख़्ाुद-ब-ख़्ाुद आत्मग्लानि की भावना से भर उठे। थोड़ी देर के बाद स्वयं को संयत करके आवारा जी ने अपनी इण्टरव्यू वाली डायरी निकाली और काफिले में शामिल एक मैले-कुचैले, थके-हारे म़जदूर के पास पहुँच गये उसका साक्षात्कार लेने। बातचीत पर ़गौर ़फरमाएँगे तो आप सहज ही समझ जाएँगे कि पूरी बातचीत के दौरान आवारा जी उस म़जदूर की आँखों से आँखें नहीं मिला पा रहे थे।
आवारा जी- म़जदूर भाई नमस्कार! जल्दी में हो?
म़जदूर- नहीं बाबूजी, अब जब पर्याप्त देर हो ही गयी है तो फिर काहे की जल्दी।
आवारा जी- पर्याप्त देर का क्या मतलब भाई, ़जरा प्रकाश डालोगे?
म़जदूर- हम प्रकाश डालें, हम म़जदूर लोग तो ख़्ाुद ही अँधरे में डूबे हुए हैं बाबूजी, वैसे पर्याप्त देर वाली बात कुछ ऐसी है कि लॉकडाउन के तीसरे दिन पिताजी गु़जर गये थे, अन्तिम दर्शन भी नहीं कर पाया। विधवा माँ को टीबी है, दो महीने से बिना दवाई के है, भगवान जाने कितने दिन की मेहमान..
आवारा जी- बिना दवाई के क्यूँ?
म़जदूर- पैसे नहीं भेज सके हम इसलिए.. बहन की शादी के लिए कुछ पैसे जोड़े थे, एक जोड़ी पायल और बिछिया भी बनवाये थे, लेकिन सारे पैसे लॉकडाउन के दौरान खाने में ख़्ार्च हो गये.. पायल और बिछिया बेचकर वापस घर जा रहे हैं।
आवारा जी- भैया लेकिन खान-पीने की व्यवस्था तो कर रही है न सरकार! कुछ स्वयंसेवी लोग और संस्थाएँ भी तो..
म़जदूर- यथासम्भव मदद तो सभी कर ही रहे हैं बाबूजी, लेकिन हम म़जदूर हैं साहब, कोई भिखारी तो नहीं, हाथ फैलाने की कोशिश करते हैं तो माथे पर पसीना चुहचुहा आता है। जब तक पैसे थे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, बाद को वह शर्मिन्दगी भी उठानी ही पड़ी।
आवारा जी- प्रशासन से कोई आग्रह करना चाहेंगे?
म़जदूर- बाबूजी! इस तपती हुई गर्म सड़क को देख रहे हैं न.. इसे हम म़जदूरों ने ही बनाया था - लेकिन इस मुश्किल समय में जब हमारी बनायी हुई ये सड़क ही हमारे पैरों के छालों को कोई मुरव्वत देने को तैयार नहीं है तो फिर और किसी से क्या उम्मीद करें, क्या ़फरियाद करें।
आवारा जी- कुछ अपने मन की ही कह लो भैया, जी हलका हो जाएगा।
म़जदूर- आप लोग तो पढ़े-लिखे लोग हैं साहब, आप ही सोचिए कि इस दुनिया में मानव निर्मित जो कुछ भी दर्शनीय है वह हम म़जदूरों के इन्हीं हाथों ने बनाया है, हमारे ही पसीने से धुलकर निकली हैं ये इमारतें और हमारा ही यह हाल.. इतना तिरस्कार, यह उपेक्षा!
आवारा जी- बहुत शर्मिन्दा हूँ भाई और क्या कहूँ।
म़जदूर- नहीं-नहीं.. किसी को शर्मिन्दा होने की ़जरूरत नहीं है बाबूजी, लेकिन एक बात बता दें कि दो जून की रोटी के बदले तथाकथित बड़े शहरों की अर्थव्यवस्था को अपने सिर पर उठा रखने वाले हम म़जदूर तो कैसे भी, कहीं भी जी लेंगे, लेकिन हमारे बिना अपनी चमक-दमक को बऱकरार रख पाना इन बड़े शहरों के लिए का़फी मुश्किल काम होगा और इतनी बेइ़ज़्जती के बाद हम तो दोबारा नहीं जाने वाले।
आवारा जी- आपका दु:ख और परेशानियाँ हम सब देख रहे हैं, दुआ करेंगे आप अपने घरों को सकुशल पहुँच जाँय। घर वापसी के इस समय में भी हमसे बात करने के लिये धन्यवाद म़जदूर भैया, आपकी यात्रा मंगलमय हो।
म़जदूर- आपका इतना पूछना ही हमें बड़ा हौसला दे गया पत्रकार मित्र..
इतना टूटा हूँ के छूने से बिख़्ार जाऊँगा,
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा।'
फाइल : विवेक त्रिपाठी
समय : 6.30
28 मई 2020
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