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    आधुनिकता की चकाचौंध में टूट रहे संयुक्त परिवार

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    Updated: Mon, 16 Jun 2014 07:38 PM (IST)

    जौनपुर: संयुक्त परिवारों की परंपरा अब ख्वाब होती जा रही है। आधुनिकता की चकाचौंध में लोग एकाकी जीवन जीने की राह पर तेजी से दौड़ रहे हैं। कभी एक ही आंगन में तीन-तीन पीढि़यों का दृश्य अब शायद ही दिखाई पड़े।

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    इसके पीछे सबसे बड़ा कारण आर्थिक व्यवस्था है। एक ही परिवार में कमाने वाले तीन खाने वाले बीस हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में लोगों के मन में कुंठा घर कर जाती है। यहीं जरूरत होती है नैतिकता व संस्कार की। पर इस पर हाबी हो जाती है आधुनिकता।

    अशिक्षा और स्वार्थ की सोच रखने वालों के मन में यह धारणा बन जाती है कि वे खुद कमाते हैं और दूसरों को खिलाते हैं। यह भाव मन में आ जाने पर संयुक्त परिवार विघटन की तरफ अग्रसर हो जाता है। लोगों के मन में ऐसा भाव आने पर परिवार बिखर जाता है। कोई नगरों की तरफ पलायन करता है तो कोई मूल परिवार से अलग हटकर आशियाना बना लेता है। अब ऐसे परिवारों की भरमार सी होती जा रही है।

    रामपुर के पट्टी गांव निवासी कर्मेद्र सिंह का कहना है कि भारतीय सभ्यता की मिठास और जीवन के सुखद क्षणों का एहसास संयुक्त परिवार में ही मिलता है। दमोदरा के डा.चंद्रेश सिंह कहते हैं कि सुख और दुख दोनों स्थिति में संयुक्त परिवारों की आवश्यकता महसूस होती है। जो परिवार संयुक्त होता है, उसे किसी भी आयोजन के समय कठिनाई नहीं होती, लेकिन एकाकी परिवारों को संयुक्त परिवार का महत्व ऐसे ही समय पर समझ में आता है।

    भौतिकता से व्यक्तिवाद को मिलता है बढ़ावा

    टीडी कालेज में समाज शास्त्र के रीडर डा.आरएन त्रिपाठी कहते हैं कि भौतिकवाद ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है। जब यह बढ़ता है तो व्यक्ति स्वतंत्र रूप में आ जाता है। वह महत्वाकांक्षा पाने की कोशिश करता है। परिणामत: संयुक्त परिवार टूटने लगते हैं। सामाजिक तौर पर मुख्य कर्ता की निरंकुशता, स्त्रियों की दुर्दशा, गतिशीलता में बाधा भी इसका कारण है।

    श्री त्रिपाठी ने कहा कि संयुक्त परिवारों का विघटन रोकने के लिए सांस्कृतिक प्रशिक्षण दिया जाना भी जरूरी है। सामाजिक सुरक्षा प्राप्त अनुभवों का संचरण, अनुशासन की सीख जैसी प्रथा को आगे बढ़ाते हुए निराश्रितों की रक्षा करनी होगी।