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    Lok Sabha Election 2024: गढ़ कब्जाने को बसपा ने रचा चक्रव्यूह, मायावती की इस चाल से सपा-भाजपा में बढ़ी उलझन

    Updated: Sun, 28 Apr 2024 11:11 AM (IST)

    1988 में 14 वर्ष बाद जब निकाय चुनाव हुए तब तक बसपा अस्तित्व में आ चुकी थी। उसने इस चुनाव में ऐसी चाल चली कि दलित मुस्लिम का रुझान बसपा की तरफ हो गया। ...और पढ़ें

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    गढ़ कब्जाने को बसपा ने रचा चक्रव्यूह, मायावती की इस चाल से सपा-भाजपा में बढ़ी उलझन

    जागरण संवाददाता, उरई। (Lok Sabha Election 2024) 1988 में 14 वर्ष बाद जब निकाय चुनाव हुए तब तक बसपा अस्तित्व में आ चुकी थी। उसने इस चुनाव में ऐसी चाल चली कि दलित मुस्लिम का रुझान बसपा की तरफ हो गया। 1989 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने और पकड़ बनाते हुए पार्टी का खाता यहीं से खोला। इसके बाद बसपा यहां मजबूत होती गई और जालौन जिला बसपा का मजबूत गढ़ बन गया।

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    2017 तक तो स्थिति कुछ ठीक रही लेकिन इसके बाद हाथी की रफ्तार रफ्ता-रफ्ता मंद होती चली गई। जालौन जिले में अनुसूचित जाति, पिछड़े मतदाताओं की संख्या ठीक-ठाक है। इसके साथ ही नौ से 10 प्रतिशत तक मुस्लिम मतदाता हैं। इसका लाभ बसपा को मिला।

    1991 के चुनाव के बाद से वर्ष 2009 तक बसपा मुख्य मुकाबले में रही। वह अपने गढ़ को बचाने में सफल रही लेकिन इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा तीसरे नंबर पर खिसक गई।

    पूर्व मंत्री चैनसुख भारती ने खोला था पार्टी का खाता

    बात की जाए विधानसभा चुनावों की तो 1989 में बसपा ने यहां कमाल कर दिखाया। पार्टी का खाता यहां पूर्व मंत्री चैनसुख भारती ने कोंच विधानसभा से चुनाव जीतकर खोला था। बसपा ने कालपी को छोड़कर तीनों विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी। इसकी वजह यह थी कि बसपा ने अपने चुनावी हथकंडे का प्रयोग कर दलितों के साथ ही मुस्लिम मतदाताओं का पूरा समर्थन हासिल कर लिया था।

    1993 में विधानसभा का चुनाव सपा बसपा गठबंधन से लड़ा गया। इसमें चारों सीटें गठबंधन को मिल गई। इसके बाद मायावती ने मुख्यमंत्री बनते ही तीन कैबिनेट मंत्री जिले से बना डाले। जिसमें चैनसुख भारती, अकबर अली और डीआर पाल थे।

    1996 में बसपा ने अपनी नीति में परिवर्तन कर दिया। जिसमें नुकसान हुआ और कालपी से श्रीराम पाल ही चुनाव जीत सके। इसके बाद भी पार्टी जीतती तो रही लेकिन उसके वोट कम होते चले गए।

    1999 में पार्टी के मजबूत नेता के रूप में बृजलाल खाबरी ने संसदीय सीट पर कब्जा कर जिले में पार्टी का झंडा बुलंद किया था। इसके बाद हाथी की चाल धीरे-धीरे थम सी गई। 2017 के विस चुनाव में बसपा कमाल नहीं कर सकी। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव हुए तो बसपा प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे। धीरे-धीरे पार्टी के विश्वस्त नेता पार्टी से किनारा करने लगे या फिर उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

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