'लाला' पर बलिहार थे 'बाबा'
जागरण संवाददाता, हाथरस : ब्रज संत शिरोमणि पं. गया प्रसाद महाराज की कृष्ण-कन्हैया से अलौकिक भक्ति
जागरण संवाददाता, हाथरस : ब्रज संत शिरोमणि पं. गया प्रसाद महाराज की कृष्ण-कन्हैया से अलौकिक भक्ति की इस कलियुग में शायद ही कोई और मिसाल हो। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 65 साल गिरिराज की तलहटी में झाड़ू लगाते हुए गुजार दिए। इस दौरान उनके मुख से नटखट नंदलाल के हठीले अंदाज का जिक्र सुन लोग भावविह्वल हो उठते। हमें गर्व है कि इस महान संत ने हाथरस की धरती पर जहां ज्ञान अर्जित किया, वहीं बांटा भी। यहीं रासलीला देख भगवान कृष्ण में ऐसी लौ लगी कि गोवर्धन पहुंच गए और फिर घर-परिवार को मुड़कर नहीं देखा। जीवनपर्यत गिरिराज की सेवा में ही लीन रहे।
जीवन वृत्तांत :
फतेहपुर जनपद के गांव कल्याणीपुर के रामाधीन मिश्र के घर कार्तिक शुक्ल षष्ठी, संवत 1950 में ज्येष्ठ पुत्र के रूप में जन्मे पं.गया प्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। फिर विद्या अध्ययन के लिए फतेहपुर के ही गांव एकडला में अपनी मौसी के घर चले गए। वहां वेद व शास्त्रों में पारंगत पं. गौरीदत्त त्रिपाठी से उन्होंने यज्ञोपवीत व गायत्री मंत्र की दीक्षा ली। उनसे ही सारस्वत व्याकरण, संस्कृत साहित्य, ज्योतिष, कोष, कर्मकांड आदि का ज्ञान अर्जित किया। इसके बाद संसार के प्रति अरुचि होने पर भी उन्होंने गुरु आज्ञा से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया। इस दौरान उनके पिता परिस्थितिवश जीविकोपार्जन के लिए परिवार को लेकर हाथरस आ बसे।
ज्ञान की पिपासा :
पं.गया प्रसाद में हाथरस आने के बाद भी ज्ञान अर्जित करने की पिपासा बनी रही। उन्होंने यहां आचार्य पं. दीनानाथ के सानिध्य में शास्त्रों का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने शहर में श्रीमद्भागवत कथा का भी वाचन शुरू कर दिया। उस दौरान शहर से सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पं. शिवलाल जी के आग्रह पर पं. गया प्रसाद ने मुरसान गेट स्थिति मोहल्ला जागेश्वर में शंकर जी के मंदिर के पास बाग में अपना निवास बना लिया।
त्याग की प्रतिमूर्ति :
जागेश्वर में पहुंचकर गया प्रसाद ने कथा की दक्षिणा लेना बंद कर दिया। शरीर पर एक मारकीन की धोती और अंगोछा ही उनकी शोभा बन गए। नंगे पैर, नंगे सिर गर्मी, जाड़ा या बरसात में एक ही बाना धारण करने का संकल्प भी उन्होंने ले लिया। सोने के लिए उन्होंने धरती चुनी। ऐसे में बच्चों को विद्या अध्ययन कराना और इससे जो प्राप्ति हो उसी से परिवार पालना पंडित जी का ध्येय बन गया।
जागी कृष्ण भक्ति :
उस दौरान वृंदावन के लाडली शरण की रास मंडली शहर में आई। पंडितजी के परम मित्र पं.जनार्दन चतुर्वेदी के मंदिर में रासलीला हुई। पंडित जी भी उसे देखने के लिए गए। वहां भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप ने अपने कंठ की माला उतारकर पंडित जी के गले में डाल दी। बस यहीं से पंडित जी के जीवन में विलक्षण परिवर्तन आया। पंडित जी उस रात सोये नहीं। पूरी रात रोते ही व्यतीत हुई। जब रास मंडली वृंदावन लौट गई तो पंडित जी भी वहीं पहुंच गए। रास मंडली वहां से नाथद्वारा (राजस्थान) गई तो पंडित भी साथ गए। वहां श्रीकृष्ण व श्रीनाथ जी में एकरूपता समझकर उन्हीं में तन्मय हो एक माह तक वहीं आराधना की।
गोवर्धन में वास :
वर्ष 1936 में पं. गया प्रसाद श्रावण के अधिमास में गोवर्धन की परिक्रमा के लिए गए और फिर वहीं गिरिराज की सेवा में लीन हो गए। वैराग्य तो पहले ही धारण कर चुके थे, यहां उन्होंने महात्मा वेश धारण कर पूर्ण विरक्ति को अंगीकार कर लिया। वहां राधाकुंड के पास मिर्ची महाराज की बगीची में रहने लगे। ब्रज वासियों से भिक्षा कर वे भक्ति योग के अनुष्ठान में जुट गए। नित्य गिरिराज की परिक्रमा का भी उनका नियम लिया और यह शरीर में सामर्थ्य रहने तक निभाया।
पहुंचे मंदिर में :
शहर के सेठ लाला रहचरनलाल ने गोवर्धन में दानघाटी के पास लक्ष्मीनारायण के मंदिर का निर्माण कराया तो गया प्रसाद जी से वहां रहने का आग्रह किया। इस पर वे वहां पहुंच गए। मंदिर के एक कमरे में रहकर पंडित जी ने अपना जीवन गिरिराज की तलहटी मे झाड़ू लगाने और अपने लाड़ले बालकृष्ण की लीलाओं में निमग्न रहते हुए व्यतीत किया।
फैला सुयश :
पं.गया प्रसाद की त्याग, तपस्या का सुयश सर्वत्र फैला। बगैर दंड व गेरुआ वस्त्र के संन्यासी, किसी भी संप्रदाय के छापा-तिलक के बगैर ही परम वैष्णव गया प्रसाद ब्रजवासियों के गिरिराज वारे बाबा हो गए। पंडित जी ने गिरिराज को न छोड़ने का संकल्प ले रखा था। वे ब्रज रज की चंदन लगाते थे और बालकृष्ण को ही अपना इष्ट मानते थे। यह कारण था कि देश की अप्रतिम विभूतियां स्वामी करपात्री जी महाराज, गोवर्धन पीठ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ, स्वामी अखंडानंद सरस्वती, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, ज्योतिष पीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानंद, डोंगेर जी महाराज, संत कृष्ण शंकर शास्त्री, विंदु जी महाराज, पं. रामकिंकर महाराज, संत मोरारी बापू आदि खुद चलकर पंडित जी के पास पहुंचते थे।
हुए अस्वस्थ :
करीब 101 वर्ष की अवस्था में संवत 2051 में गुरुपूर्णिमा के दिन पं. गया प्रसाद अस्वस्थ हुए। इस दौरान उनके अनुयायियों ने इलाज के लिए बाहर ले जाने की कोशिश भी की, मगर पंडित जी की गिरिराज को न छोड़ने की प्रतिज्ञा आड़े आ गई। कुछ दिन बाद ही भाद्रपद कृष्ण पक्ष चतुर्थी को पंडित जी गिरिराज की पावन तलहटी दानघाटी में अपने ही जीवन धन प्रियतम प्रभु की नित्य लीला में लीन हो गए।
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