हापुड़ में गंगा तट पर कार्तिक मेला, महाभारत काल से चला आ रहा रीत; समझिए पूरी कहानी
गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे लगने वाला कार्तिक पूर्णिमा मेला महाभारत काल से जुड़ा है। कभी यह मेला सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था, जहाँ लोग मिलते-जुलते थे और नेता अपनी नीतियाँ रखते थे। विभाजन के दौरान यह सांप्रदायिक दंगों का शिकार भी हुआ, लेकिन लोगों ने आपसी सद्भाव बनाए रखा।
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गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे लगने वाला कार्तिक पूर्णिमा मेला महाभारत काल से जुड़ा है।
अशरफ चौधरी, गढ़मुक्तेश्वर। मोक्षदायिनी और पापनाशक गंगा के तट पर प्रतिवर्ष लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा मेले का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है। यह मेला अपने प्राचीन स्वरूप के कारण विशेष स्थान रखता है, लेकिन आधुनिक परिवेश में इसकी परंपराएँ तेज़ी से बदल रही हैं। यहाँ आने वाले लोग एक-दूसरे के खान-पान और पहनावे से परिचित होते थे, और अपने बेटे-बेटियों के विवाह भी तय करते थे।
लगभग सात दशक पहले तक, सीमित प्रचार संसाधनों के कारण, यह धार्मिक मेला एक प्रमुख राजनीतिक केंद्र भी माना जाता था, जहाँ पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह सहित प्रमुख नेता जनसभाओं में शामिल होकर अपनी नीतियाँ प्रस्तुत करते थे। भक्ति और उल्लास से सराबोर, गंगा के प्रति अटूट आस्था से ओतप्रोत यह अनूठा मेला सांप्रदायिक दंगों से लेकर नोटबंदी तक, हर तरह की घटनाओं से प्रभावित रहा है। देश के विभाजन के दौरान गढ़ गंगा मेला सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया था।
भले ही अब यकीन करना मुश्किल हो, लेकिन हकीकत यही है कि गढ़ में मां गंगा के किनारे रेतीले मैदानों पर हर साल लगने वाला कार्तिक पूर्णिमा गंगा मेला भी सांप्रदायिकता की आग में झुलस गया था। देश के बंटवारे के दौरान 1947 में नफरत की आग गढ़ गंगा मेले तक पहुँच गई थी। उस समय मेले में देश की सबसे बड़ी लकड़ी की मंडी लगती थी, जहाँ किसान बैलगाड़ियों समेत कृषि संबंधी सामान खरीदते थे।
दंगों के दौरान, लकड़ी की मंडी लगाने वाले व्यापारियों को सबसे ज़्यादा जान-माल का नुकसान हुआ था। प्राचीन गंगा मंदिर के कुल पुरोहित पंडित संतोष कौशिक बताते हैं कि देश के बंटवारे के दौरान गढ़ खादर मेला भी सांप्रदायिकता की आग में झुलस गया था, जिसकी लपटें मेले से शहर तक फैल गई थीं। उस दौरान बहुसंख्यक हिंदू समुदाय ने अपने मुस्लिम परिचितों को घरों में छिपाकर उनकी जान बचाई थी।

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