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    भगवान कृष्ण से जुड़ा है कार्तिक पूर्णिमा गंगा मेले का इतिहास

    उत्तरी भारत के मिनी कुंभ के रूप में विख्यात गढ़ खादर के कार्तिक पूर्णिमा गंगा स्नान मेले में दीपदान सबसे महत्वपूर्ण पर्व कहलाया जाता है। क्योंकि महाभारत के विनाशकारी युद्ध में मारे गए असंख्य सगे संबंधी और वीर योद्धाओं को लेकर जब पांडवों का मन बुरी तरह व्याकुल हुआ तो भगवान श्रीकृष्ण उन्हें साथ लेकर गढ़ में आए थे। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के साथ ही उनसे दीपदान भी कराया था। तब से यहां दीपदान होता है।

    By JagranEdited By: Updated: Wed, 21 Nov 2018 06:24 PM (IST)
    भगवान कृष्ण से जुड़ा है कार्तिक पूर्णिमा गंगा मेले का इतिहास

    संवाद सहयोगी, ब्रजघाट

    कार्तिक पूर्णिमा गंगा मेले में दीपदान प्रथा की शुरुआत भगवान कृष्ण ने कराई थी। महाभारत के विनाशकारी युद्ध में मारे गए योद्धाओं को लेकर जब पांडवों का मन बुरी तरह व्याकुल हुआ तो भगवान श्रीकृष्ण उन्हें लेकर गढ़ आए थे। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के साथ ही उनसे दीपदान कराया था। उसके बाद ही यहां मेले का आयोजन किया जाने लगा और दीपदान की प्रथा शुरू हुई।

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    इतिहास के अनुसार कौरव और पांडवों के बीच हुए महाभारत युद्ध में लाखों योद्धा मारे गए थे। इनमें पांडवों के सगे-संबंधी और वीर योद्धा शामिल थे। युद्ध के बाद पांडवों का मन व्याकुल हो उठा। उनमें राजपाट के प्रति विरक्ति के भाव उत्पन्न होने लगे तो भगवान श्रीकृष्ण को ¨चता होने लगी। उन्होंने इसका उपाय जानने के लिए ऋषि-मुनियों से विचार विमर्श किया। इसके बाद वह कार्तिक माह में भैया दूज पर्व संपन्न होने पर पांडवों को गढ़ में गंगा किनारे लेकर आए थे। यहां कई दिनों तक पड़ाव डालकर उनसे विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान कराए गए थे।

    प्राचीन गंगा मंदिर के कुल पुरोहित पंडित संतोष कौशिक और पंचायती मंदिर के पुजारी पंडित सुरेंद्र प्रसाद शर्मा का कहना है कि महाभारत के युद्ध में जान गंवाने वालों की आत्मा की शांति को चतुर्दशी की संध्या में दीपदान करने पर पांडवों के व्याकुल मन को शांति मिल गई थी। इसके बाद कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा में डुबकी लगवाकर श्रीकृष्ण पांडवों के साथ लौट गए थे। उसके बाद से ही प्रति वर्ष कार्तिक पूर्णिमा पर मेले का आयोजन किया जाने लगा। वर्तमान समय में गंगा किनारे मखदूमपुर, तिगरी धाम, अनूपशहर, नरौरा, रामराज, बिजनौर बैराज समेत विभिन्न स्थानों पर मेले का आयोजन किया जाता हैं, लेकिन जो धार्मिक मान्यता गढ़ के मेले की है वह किसी दूसरे स्थान पर आयोजित मेलों की नहीं है।