पौराणिक है गढ़ का गंगा घाट
गढ़मुक्तेश्वर (हापुड़) : गढ़मुक्तेश्वर एक प्राचीन तीर्थ स्थल है। यह गंगा के तट पर जनपद हापुड़ के आखरी छोर पर राष्ट्रीय राजमार्ग 24 पर गाजियाबाद से मुरादाबाद की ओर 80 किलोमीटर की दूरी पर बसा है।
गंगा तीर्थ नगरी गढ़मुक्तेश्वर का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में भी है। वहीं हिन्दुओं का अति प्राचीनतम एवं प्रमुख तीर्थ स्थल है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पूर्वज महाराज शिव ने अपना चतुर्थ आश्रम गढ़मुक्तेश्वर में ही व्यतीत किया था। भगवान शिव ने भगवान श्री परशुराम द्वारा यहां शिव मंदिर की स्थापना कराई थी। उस समय गढ़मुक्तेश्वर खाण्डवी वन क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। शिव मंदिर की स्थापना और बल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र होने के कारण इसका नाम शिवबल्लभपुर पड़ा, जिसका वर्णन शिवपुराण में भी मिलता है। भगवान विष्णु के गण जय और विजय को नारद श्राप के चलते मृत्यु लोक में आना पड़ा था। उन्होंने अपनी मुक्ति के लिए अनेक तीर्थ स्थलों की यात्रा की, लेकिन कहीं भी शाति नहीं मिली। अन्त में वे यहां आए और भगवान शकर की उपासना की। भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए, जिस पर दोनों गणों का उद्धार हुआ। भगवान विष्णु के इन गणों की मुक्ति होने के कारण शिवबल्लभपुर नामक तीर्थ स्थल गढ़मुक्तेश्वर नामक तीर्थ स्थल के नाम से जाना जाने लगा। महाभारत काल में यह नगर जल मार्ग व्यापार का मुख्य केंद्र था। यह हस्तिनापुर राज्य की राजधानी का एक हिस्सा रहा है। हस्तिनापुर से उत्तर दिशा की ओर पुष्पावती जो आज गंगा के किनारे बसा ग्राम पूठ है। वह भी खाण्डवी वन क्षेत्र था। उस समय पुष्पावती नाम का एक मनमोहन भव्य उद्यान था। द्रोपदी यहां स्थित फूलों की घाटी में प्राय: घूमने आया करती थीं।
हस्तिनापुर से पुष्पावती के बीच 35 किलोमीटर तक एक गुप्त मार्ग था, जिसके चिन्ह कुछ वर्ष पहले तक मौजूद थे।
महाभारत काल से लगता है कार्तिक मेला
पवित्र पावनी गंगा मैया के किनारे गढ़ गंगा खादर क्षेत्र के रेतीले मैदान पर लगने वाले कार्तिक गढ़ मेले का इतिहास भी लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है। महाभारत के विनाशकारी युद्ध के बाद धर्मराज युधिष्ठिर, अर्जुन तथा कृष्ण के मन में युद्ध विभीषिका तथा नरसंहार को देखकर भारी ग्लानि पैदा हुई। युद्ध में मारे गये कुटुम्बियों, बंधुओं एवं निर्दोश व्यक्तियों को आत्मा की शाति किस प्रकार मिले तथा उनका मृत्यु संस्कार कैसे पूर्ण किया जाए, इस पर गंभीर चर्चा हुई। वेद उपनिषदों तथा पुराणों का अध्ययन किया गया। भगवान कृष्ण की अध्यक्षता में सभी विद्वानों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि खाण्डवी वन में भगवान परशुराम द्वारा स्थापित शिवबल्लभपुर नामक स्थान पर मुक्तेश्वर महादेव की पूजा एवं यज्ञोपरात पतित पावनी गंगा मैया में स्नान करके पिण्डदान करने से सभी संस्कार पूर्ण हो जायेंगे। इस निर्णय का सभी विद्वानों ने एक मत से स्वागत किया तत्पश्चात शुभ मुहुर्त निकाला गया। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गौ पूजन करके गंगाजी में स्नान किया तथा एकादशी को गंगाजी के रेतीले मैदान में अपने सभी पूर्वजों के उत्थान हेतु धार्मिक संस्कार करके उन्हें पिण्डदान किया । यही एकादशी देवोत्थान एकादशी (देव उठान ) कहलायी।
एकादशी से चतुदर्श तक युद्ध में मारे गये सभी स्वजनों की आत्मा की शाति के लिये यज्ञ किया गया तथा चतुदर्शी की संध्या यज्ञ सम्मपनोपरात स्वर्गीय आत्माओ को दीपदान कर श्रद्धाजलि अर्पित की गयी। अगले दिन पूर्णिमा को स्नान करके पूजा अर्चना की गयी। इस प्रकार एक सप्ताह तक यह धार्मिक उत्सव सम्पन्न होने पर संतोष व्यक्त किया। तभी से यहां कार्ति मेला लगता है। जिसमें उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली प्रांतों से कार्तिक पूर्णिमा पर अपने स्वर्गीय परिजनों का पिंड दान करने और अन्य धार्मिक अनुष्ठान के लिये तीस लाख से अधिक श्रद्धालु यहां आते हैं और यहां दस दिन तक विशाल मेला लगता है।
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