Chaurichaura Kand: चौरी चौरा शताब्दी महोत्सव: चौरी चौरा विद्रोह? असली गुनहगार कौन?
मुंडेरा बाजार के संत बख्श सिंह उनके कारिंदे रघुबर दयाल अवधू तिवारी जगतनारायण पांडेय और डुमरी खास के सरदार उमराव सिंह के मैनेजर हरचरन सिंह के उकसाने से ऐसा दावानल भभकता है। असहयोग आंदोलन मंडल कार्यालय का सूत्रपात 13 जनवरी 1922 को डुमरी खुर्द गांव में होता है।

गोरखपुर, जेएनएन। इतिहास की कुछ तारीखें, जन आक्रोश का सैलाब बनती हैं और मजबूत गढ़ों को न केवल नेस्तनाबूद करती हैं, अपितु उसके कारणों का पर्दाफाश भी करती हैं। चार फरवरी, 1922, चौरी चौरा विद्रोह की तारीख, कुछ ऐसे ही अमिट पन्नों को इतिहास में दर्ज करती है, जहां सशस्त्र सिपाहियों की गोलियों से बेखौफ जनता, दरोगा सहित 23 सिपाहियों और चौकीदारों को थाने में फूंक देती है। जन विद्रोह की यह तारीख, अपने बलिदान से तत्कालीन मुुुख्यधारा की सामंती राजनीति द्वारा 'चौरी चौरा का अपराध या 'गुंडों का कृत्य कहे जाने के कलंक से खुद को मुक्त कर लेती है। चौरी चौरा विद्रोह के शताब्दी वर्ष में हम पुनर्वालोकन करते हुए तत्कालीन जमींदारों के वर्गीय चरित्र को विद्रोह का कारण मानतेे हैं।
मुंडेरा बाजार के संत बख्श सिंह, उनके कारिंदे रघुबर दयाल, अवधू तिवारी, जगतनारायण पांडेय और डुमरी खास के सरदार उमराव सिंह के मैनेजर हरचरन सिंह के उकसाने से ऐसा दावानल भभकता है। असहयोग आंदोलन मंडल कार्यालय का सूत्रपात 13 जनवरी 1922 को डुमरी खुर्द गांव में होता है। गांधी के स्वराज्य की परिकल्पना, यहां के किसान, सामंतों के बाजारों में पिकेटिंग से प्रारम्भ करते हैं। एक फरवरी, 1922 को भगवान अहीर की दारोगा द्वारा पिटाई होती है। दो फरवरी को मंडल के किसानों को बुलाने के लिए चिट्ठी लिखी जाती है और 4 फरवरी की सुबह सात बजे बिहारी पासी के घर के सामने के खलिहान में स्वयंसेवकों का जुटान शुरू होता है। सामंतों के कारिंदों के डराने से लोग डरते नहीं और थाने की ओर मार्च करते हैं। अवधू तिवारी के उकसाने पर दरोगा तीन-चार हजार की भीड़ पर गोली चलवा देता है। लोग मरते हैं। गोलियां खत्म होने लगती हैं। मिसाइलों (रेलवे लाइन के कंकड़ों को अंग्रेजों ने मिसाइल लिखा है) की बौछार से पुलिसकर्मी थाना भवन में छिपने को बाध्य होते हैं और फिर थाना भवन में आग लगा दी जाती है। दमन का दौर शुरू होता है। किसानों की धरपकड़ में जमींदार सहयोगी होते हैं। अपने लोगों को बचाते हैं और बैरियों को फंसाते हैं। मुख्य स्वयंसेवकों में से शिकारी को सरकारी गवाह में बदलने का काम सरदार हरचरन सिंह के द्वारा किया जाता है।
चौरी चौरा की घटना को फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत सदृश्य माना
जमींदारों के सहयोग से क्रूर उप निरीक्षक गुप्तेश्वर सिंह को 'द लीडर' जैसा अखबार 'गोरखपुर का नायक घोषित करता है। उसके वैश्यगोत्र की कुलीनता का बखान कर, हाशिये के समाज को घृणित करार देता है। गांधीजी, राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन को स्थगित कर प्रायश्चित स्वरूप पांच दिनों के उपवास पर चले जाते हैं। प्रतिक्रिया में नाराज सुभाष चन्द्र बोस लिखते हैं- 'जब जनता का जोश उबल रहा था तब पीछे हटने का बिगुल बजा देना, राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी दुर्घटना है। जेल में बंद देशबंधु चितरंजन दास की आंखें क्रोध से लाल हो जाती हैं और नेहरू, जेल से लिखते हैं 'चौरी चौरा कांड के बाद आंदोलन के मुल्तवी कर दिये जाने सेे गांधीजी को छोड़कर कांग्रेस के बाकी तमाम नेताओं में बहुत नाराजगी थी।' ब्रिटिश साम्राज्य को हिला देने वाले इस विद्रोह के संबंध में 'हाउस आफ कॉमन' की चर्चा में इसे फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत सदृश्य माना जाता है।
सेशन कोर्ट द्वारा 172 लोगों की फांसी, हाईकोर्ट में मालवीय जी की पैरवी से 19 को फांसी, 14 को आजीवन, 19 को 8 साल, 57 को पांच साल और बीस को तीन-तीन साल की सजा में बदल जाती है। इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व डुमरी खुर्द निवासी नजर अली, चौरा निवासी लाल मुहम्मद, भगवान अहीर, राजधानी चुडि़हार टोले का अब्दुल्ला और रामनगर के श्याम सुन्दर मिश्र ने किया। लोक ने इस विद्रोह का, बड़ा ही मार्मिक वर्णन, लोकगीतों में किया है-
'दिहले अगिया हो लगाय, जरि गइले गोरवा,
चौदह अंगरेज जरि तजले परनवा,
थाना से फरार भइले हिन्द के जवनवा,
दिहले पापी लालच हो धराय, मरी गइले गोरवा।
जिन-जिन गइले बहुरि ना अइले कइसन होला देसवा
ल हो अम्मा लोटा डोरी खोजन जइबू बचवा।'
आलेख - सुभाष चंद्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड,गोमतीनगर, लखनऊ 226010
(लेखक ने 'चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन' नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी हैं)
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