अंग्रेजों का सिर काटकर मां तरकुलहा देवी को चढ़ाते थे बाबू बंधू सिंह, सात बार टूटा था फांसी का फंदा
Babu Bandhu Singh गोरखपुर के सिद्ध पीठ तरकुलहा देवी की की प्रसिद्धि की कहानी अमर बलिदानी बाबू बंधु सिंह से भी जुड़ी है। बाबू बंधू सिंह अंग्रेजों का सि ...और पढ़ें

गोरखपुर, जागरण संवाददाता। सिद्ध पीठ होने की वजह से तरकुलहा देवी मंदिर में पूजा-अर्चना करने के लिए श्रद्धालुओं की कतार हर रोज लगती है लेकिन इनमें से कम ही लोगों को पता होता है कि उसे सिद्ध पीठ के रूप में पहचान दिलाने वाले कौन थे। आजादी का अमृत महोत्सव वह अवसर है जब हम श्रद्धालुओं को यह जानकारी दे सकते हैं।
बाबू बंधू सिंह से जुड़ी है इस पीठ की कहानी
इस पीठ की प्रसिद्धि की कहानी डुमरी रियासत के बाबू शिव प्रसाद सिंह के पुत्र अमर बलिदानी बाबू बंधु सिंह जुड़ी है। बाबू बंधु सिंह का नाम उन देशभक्तों में पूरे सम्मान के साथ लिया जाता है, जो स्वाधीनता की पहली ही लड़ाई में अंग्रेजों के लिए आतंक का पर्याय बन गए थे। वह उन राजाओं और जमींदारों में शामिल थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना राजपाठ कुर्बान कर दिया।
1857 की क्रांति में बंधु सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ छेड़ा था गौरिल्ला युद्ध
जनश्रुतियों के अनुसार बाबू बंधु सिंह ने तरकुलहा के पास घने जंगलों में रहकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था। वह जंगल में रहकर मां तरकुलहा की पूजा करते थे और अंग्रेजों का सिर काटकर मां के चरणों में चढ़ाते थे। उन्होंने अग्रेजों को भगाने की लिए गौरिल्ला युद्ध प्रणाली अपनाई थी। उनकी इस प्रणाली और अपने अफसरों को खोने से भयभीत अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए मुखबिरों का जाल बिछा दिया। लंबे प्रयास के बाद वह उन्हें धोखे से गिरफ्तार करने में सफल हो गए। गिरफ्तारी के बाद उन्हें फांसी लटकाने का फैसला अंग्रेजी सरकार ने सुनाया।
सात बार टूटा फांसी का फंदा
कहते हैं कि अंग्रेजों ने बंधू सिंह को जैसे ही फांसी के फंदे पर लटकाया, फांसी का फंदा टूट गया। दोबार फंदा चढ़ाया तो वह भी टूट गया। सात बार के प्रयास के बाद भी वह फांसी देने में सफल नहीं हुए। अंत में स्वयं बंधु सिंह ने मां तुरकुलहा से अपने चरणों में लेने का अनुरोध किया। उसके बाद जब उनके गले में फांसी का फंदा डाला गया और वह हंसते-हंसते उस पर झूल गए, तब जाकर अंग्रजों को चैन मिला। बंधु सिंह को फांसी अलीनगर में दी गई थी।

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