Independence Day: पं. राम प्रसाद बिस्मिल का बलिदान, कारागार में आज भी अमिट निशान
गोरखपुर जेल में पं. राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी दी गई और उनकी यादें आज भी वहां सुरक्षित हैं। बिस्मिल स्मारक और स्मृति उपवन उनके बलिदान की कहानी कहते हैं। जेल की कोठरी में उन्होंने 123 दिन गुजारे जिसे उन्होंने साधना कक्ष माना। दीवारों पर उकेरे गए उनके शेर आज भी प्रेरणा देते हैं।

जागरण संवाददाता, गोरखपुर। स्वाधीनता इतिहास में गोरखपुर का नाम जिन घटनाओं के लिए दर्ज हैं, उनमें पं. राम प्रसाद बिस्मिल का बलिदान प्रमुखता से शामिल है। 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल की एक कोठरी में उन्हें फांसी के फंदे पर लटकाया गया। वह फांसी घर तो जेल में मौजूद है ही, लकड़ी का फ्रेम और लीवर भी आज तक सुरक्षित है। यहां तक कि बिस्मिल से जुड़े जेल के दस्तावेज और उनके सामानों की सूची भी जेल में संरक्षित है।
जेल में बनाया गया बिस्मिल स्मारक और स्मृति उपवन उनके प्रति राष्ट्र के समर्पण का प्रमाण है। इसे देखकर शायद ही कोई देशवासी होगा, जिसके में मन में देशप्रेम की भावना नहीं जाग उठेगी। बिस्मिल भले ही शाहजहांपुर के रहने वाले थे लेकिन गोरखपुरवासी उन्हें अपना मानते हैं। जेल में उनकी देशभक्ति का प्रमाण देख श्रद्धा से सिर झुकाते हैं।
पं. बिस्मिल को जिला कारागार लखनऊ से 10 अगस्त 1927 को गोरखपुर जेल लाया गया था। उन्हें कोठरी नंबर सात में रखा गया। उन दिनों वह तन्हाई बैरक कहा जाता है। फांसी के पहले उन्होंने गोरखपुर जेल में 123 दिन गुजारे।
इस कोठरी को उन्होंने साधना कक्ष के रूप में इस्तेमाल किया। इस बात की तस्दीक बिस्मिल अंतिम समय के उद्गार से होती है- 'मुझे इस कोठरी में आनंद आ रहा है। मेरी इच्छा यह थी कि किसी न किसी साधु की गुफा पर कुछ दिन निवास करके योगाभ्यास किया जाता। साधु की गुफा न मिली तो क्या, साधना की गुफा तो मिल गई। बड़ी कठिनता से यह अवसर प्राप्त हुआ है।' चूंकि जेल में बिस्मिल के पास लिखने-पढ़ने की कोई सामग्री नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने जज्बात शेर के जरिये कोठरी की दीवार पर नाखून से ही उकेर दिए।
'मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे' फांसी के लिए जाने से पहले महान क्रांतिकारी पं. राम प्रसाद बिस्मिल के मुंह से निकला यह शेर आजादी के दीवानों का तबतक मार्गदर्शन करता रहा, जब तक वह मिल नहीं गई। यह शेर उन अशआर की कड़ी है, जिसे बिस्मिल ने फांसी से पहले जेल की काल कोठरी की दीवारों पर भी अपने नाखूनों से उकेरा था।
जेल की कोठरी से गढ़ दिए कई शेर
दरअसल काकोरी ट्रेन एक्शन पं. बिस्मिल एक गंभीर शायर भी थे, इसलिए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ अपने अशआर के जरिये भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। समय-समय अशआर के जरिये आजादी को लेकर वह न केवल अपने जज्बात जाहिर करते रहे बल्कि उससे क्रांतिकारियों में जोश भी भरते रहे।
यह जंग उन्होंने फांसी की सजा घोषित होने के बाद भी जारी रखी। आज भी वह शेर जेल के उस हिस्से की दीवारों पर देखे जा सकते हैं, जहां बिस्मिल को देश की स्वाधीनता के लिए फांसी के फंदे पर झूलना पड़ा था।
जेल में उनके वह दो शेर भी एक शिलापट्ट पर उल्लिखित है, जिसे उन्होंने फांसी से पहले लिखे अपने अंतिम पत्र में इस जोश भरे इस वाक्य के साथ लिखा था कि 'मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा उसकी दीन संपत्ति के लिए उत्साह व ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र फिर लौट जाएगी।'
काकोरी ट्रेन एक्शन के नायक थे बिस्मिल
पंडित बिस्मिल को फांसी काकोरी में खजाना लूटने को लेकर हुई। यह लूट ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह के लिए हथियार खरीदने को लेकर क्रांतिकारियों ने की थी। काकोरी लूट में जिन चार लोगों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में फांसी की सजा हुई उनमें बिस्मिल भी शामिल है, जिन्हें फांसी देने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने गोरखपुर को चुना।

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