गोरखपुर सबरंग: 'फिराक' नाम के बिना अधूरी है कसया रोड की पहचान, नाम से मिली सड़क को पहचान
गोरखपुर की कसया रोड जिसे अब मेडिकल रोड के नाम से जाना जाता है अपनी पहचान शायर फिराक गोरखपुरी से पाती है। फिराक ने अपने नाम से गोरखपुर को दुनियाभर में पहचान दिलाई। वे स्वतंत्रता सेनानी भी थे और उन्होंने अपनी शायरी में सूफीवाद और भारतीय संस्कृति को समाहित किया। आज भी वे लोगों के दिलों में जिंदा हैं।
डॉ. राकेश राय, गोरखपुर। शहर की एक सड़क ऐसी है, जिसे अपने नाम नहीं बल्कि एक ऐसी शख्सियत से पहचान मिलती है, जिनसे देश भर में गोरखपुर की इज्जत बढ़ती है। हम बात कर रहें है मेडिकल रोड के रूप में पहचान बना चुके कसया रोड की और उसके बीच स्थापित शायर फिराक गोरखपुरी की।
कसया को जाने वाली रोड होने की वजह से इसे कसया राेड नाम जरूर मिल गया तो लेकिन रोड की पहचान के लिए फिराक साहब का सहारा जरूर लेना पड़ता है। रोड पर मौजूद व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व आवासों के पता में फिराक चौराहे के करीब होने का जिक्र रहता है। आइए शहर के प्रमुख मार्गों की चर्चा के क्रम में हम कसया रोड के जरिये फिराक के महान व्यक्तित्व को याद करते हैं। उनके कृतित्व को यादकर गौरवान्वित होते हैं।
28 अगस्त 1896 को गोरखपुर के बनवारपार गांव में शायर गोरख प्रसाद इबरत के घर में जन्मे रघुपति सहाय यानी फिराक गोरखपुरी जिले के नहीं बल्कि समूचे उर्दू अदब के सशक्त हस्ताक्षर थे। अपने नाम में 'गोरखपुरी' शब्द जोड़कर उन्होंने गोरखपुर को देश ही नहीं दुनिया भर के साहित्य व उर्दू के कद्रदानों के बीच पहचान दी।
रावत पाठशाला और जुबली हाईस्कूल के बाद फिराक ने म्योर कालेज इलाहाबाद से इंटर प्रथम श्रेणी पास किया और फिर बीए में चौथे स्थान पर रहे। वह इतने मेधावी थे कि पहले ही प्रयास में डिप्टी कलेक्टर बन गए। जब ट्रेनिंग के लिए उन्हें लंदन जाना था तभी पिता का निधन हो गया और वह वहां नहीं जा सके।
भारत सरकार के सूचना विभाग की पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम' में दर्ज है कि डिप्टी कलेक्टर पद से इस्तीफा देकर फिराक महात्मा गांधी के सहयोगी बन गए और असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। कई बार जेल जाना पड़ा ओर अर्थदंड के भागी भी बने।
महात्मा गांधी के प्रेरक संबोधन ने उन्हें स्वतंत्र संग्राम सेनानी बनने के लिए प्रेरित किया। पहले व आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अंडर सिक्रेटरी बने लेकिन बाद में कांग्रेस की नीतियों से असंतुष्ट होकर इस्तीफा दे दिया और फिर अध्ययन प्रक्रिया आगे बढ़ाने में जुट गए।
1930 में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एमए किया। एमए का टापर होने की वजह से उनकी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता के तौर पर नियुक्ति हाे गई। इस दौरान उन्होंने अपनी शायर प्रतिभा को उभारने पर ध्यान दिया। फिराक की शायरी को चरमोत्कर्ष प्रगतिशील लेखक आंदोलन के साथ मिला।
सूफीवाद के साथ वेदांत और भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन ने उनकी शायरी को अन्य शायरों से अलग कर दिया। सूफीवाद की रहस्यात्मक प्रवृत्ति को रचनात्मक मूल्य के रूप में स्थापित करने की विलक्षण प्रतिभा के चलते ही वह अदब की दुनिया में विशिष्ट पहचान बना सके। उन्होंने भारतीय समाज की भाषा से अपनी भाषा बनाई।
भोजपुरी के शब्दों के इस्तेमाल से अपनी शायरी घर-घर पहुंचाई। विद्यार्थी जीवन में गोखले पदक, रानाडे पदक, शहादरी पदक और परिपक्वता के समय साहित्य अकादमी, सोवियत लैंड और ज्ञानपीठ जैसे पुरस्कारों से विभूषित होने वाले पद्मभूषण फिराक गोरखपुरी ने तीन मार्च 1982 को नई दिल्ली में अपनी अंतिम सांसें लीं।
बेबाक व्यक्तित्व व विशिष्ट शायरी के चलते फिराक आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं।कसया रोड पर स्थापित उनकी प्रतिमा के प्रति लोगों की श्रद्धा इसका प्रमाण है। रोड से गुजरने के दौरान फिराक जरूर याद आते हैं। अपनी शख्सियत से रोड को पहचान दिलाते हैं। उनके ही एक शेर में उनका व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से उभरता है। यह शेर उन्हें याद करने के दौरान जरूर याद आता है।
ये दुनिया छूटती है, मेरे जिम्मे न कुछ रह जाए,
बता ऐ मंजिले हस्ती तेरा कितना निकलता है।
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