सबरंग: धीमी आवाज का बड़ा हास्य बना असित सेन का अंदाज, नाम से मिली सड़क को पहचान
गोरखपुर के असित सेन, अपनी हास्य शैली के लिए जाने जाते हैं। घोष कंपनी चौराहे से नखास चौक तक की सड़क उनके नाम से पहचानी जाती है। पूर्वांचल की मिट्टी से जुड़े असित सेन ने बॉलीवुड में भी अपनी पहचान बनाई। उनकी धीमी आवाज और मजाकिया संवादों ने दर्शकों को खूब हंसाया। उनका हास्य अपनापन लिए होता था, जो पूर्वांचल की संस्कृति से जुड़ा था।

डॉ. राकेश राय, गोरखपुर। शहर के घोष कंपनी चौराहे से नखास चौक को जाने वाली सड़क वैसे तो बिजली के अत्याधुनिक सामानों की बिक्री के लिए जानी जाती है लेकिन इसे एक ऐसे नाम से भी पहचान मिलती है, जिसका सिक्का गोरखपुर के रंगकर्म से मुंबई की फिल्मी दुनिया तक चला। जी हां, हम बात कर रहे हैं- असित सेन की, जिन्होंने हास्य के खास अंदाज से लंबे समय तक सिने प्रेमियों को हंसाया। 1950 से 1980 के बीच तीन दशकों तक धीमी आवाज से बड़ा हास्य पैदा कर दर्शकों के दिलों पर राज किया।
13 मई 1917 को गोरखपुर में जन्मे असित सेन का बचपन पूर्वांचल की मिट्टी और यहां की संस्कृति से गहराई से प्रभावित रहा। गोरखपुर के लोगों का सहज व्यवहार उनके व्यक्तित्व में बसता चला गया। यही कारण रहा कि उनकी अभिनय शैली में भी वही सरलता, मासूमियत और सौम्यता दिखाई दी, जिसने उन्हें अपने दौर के अन्य हास्य अभिनेताओं से अलग पंक्ति में खड़ा किया। असित सेन ने यह साबित किया कि बड़े कलाकार हमेशा बड़े शहरों से नहीं आते।
गोरखपुर जैसे सामान्य शहर से निकलकर भी राष्ट्रीय मंच पर चमक बिखेरते हैं। असित सेन फूहड़ता से दूर, गरिमापूर्ण हास्य के लिए जाने जाते थे। उनकी धीमी आवाज़ जब किसी मज़ाकिया संवाद के साथ आती, तो दृश्य अपने आप जीवंत हो जाता। उनका हास्य कभी आक्रामक नहीं होता था बल्कि अपनापन लिए रहता था। यह वह विशेषता है, जिसे पूर्वांचल की संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता। गोरखपुर की बोली और संस्कृति में जो सहजपन है, वही असित सेन के अभिनय में भी दिखाई देता था।
मशहूर निर्माता-निर्देश विमल राय के बुलावे पर पहले वह गोरखपुर से कोलकाता गए और बंगाली फिल्मों में अपने अभिनय का हुनर दिखाया। विमल राय के जरिये ही उन्हें बालीवुड की राह मिली और लंबे समय तक मुंबई मेंं रहकर उन्होंने मनोरंजन की फिल्मी विधा को समृद्ध किया। बावजूद इसके उनका गोरखपुर प्रेम बना रहा। समय-समय शहर में आते रहे और कोतवाली रोड स्थित अपने आवास में कुछ वक्त बिताते रहे।
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रिक्शे पर घूमकर शहर के बदलते मिजाज को भी भांपते रहे। उन पुराने दोस्तों को भी समय देते रहे, जिनके साथ उनका बचपन बीता था और जिनके साथ खेलकर वह बड़े हुए थे। 18 सितम्बर 1993 को कोलकाता में असित सेन ने अंतिम सांस ली। निधन के 32 वर्ष बाद भी असित सेन का नाम गोरखपुर में जिंदा है। उनके हास्य का अंदाज जिंदा है। गोरखपुर आज भी उन्हें अपना गौरव, अपनी पहचान और अपनी सांस्कृतिक परंपरा का सच्चा प्रतिनिधि मानता है।
गोरखपुर के रंगमंच से सिनेमा के पर्दे तक
मुंबई जाने से पहले ही असित सेन गोरखपुर में रंगकर्म से जुड़े रहे। स्थानीय रामलीला, नाट्य-मंडली और सांस्कृतिक आयोजनों में वह सक्रिय रूप से हिस्सा लेते रहे। वही मंच उनके अभिनय का पहला स्कूल साबित हुए। गोरखपुर के इन अनुभवों ने उन्हें अभिनय की वह सहजता दी, जिसने आगे चलकर उन्हें एक अनूठा अभिनेता बनाया। फिल्म जगत में उनकी शुरुआत निर्देशक के रूप में हुई। ‘परिवार’ (1956), ‘अपराधी कौन?’ (1957) जैसी फिल्मों से उन्होंने निर्देशन का सफर शुरू किया लेकिन नियति ने उनके हाथ में एक अलग पहचान लिख रखी थी 'हास्य अभिनेता की'।
1960 और 70 के दशक में वह बॉलीवुड की हर दूसरी महत्वपूर्ण फिल्म में नज़र आते थे। ‘आनंद’, ‘गुड्डी’, ‘अमर प्रेम’, ‘गोलमाल’, ‘नमक हराम’, ‘चितचोर’, ‘बावर्ची’, ‘ख़ुशबू’ जैसी फिल्मों में किरदार भले छोटा रहा हो लेकिन उनकी मौजूदगी हमेशा दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान छोड़ती रही।

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