नि:स्वार्थ सेवा भाव : उच्च संस्कारों की पहचान
जीवन मूल्यों में संस्कारों का बड़ा महत्व है। ऐसा ही एक संस्कार है सेवा का भाव। नि: स्वार्थ भाव से यथा
जीवन मूल्यों में संस्कारों का बड़ा महत्व है। ऐसा ही एक संस्कार है सेवा का भाव। नि: स्वार्थ भाव से यथासंभव जरूरतमंद की मदद करना, सेवा करना हमारे संस्कारों की पहचान कराता है। तन, मन और वचन से दूसरे की सेवा में तत्पर रहना स्वयं इतना बड़ा साधन है कि उसके रहते किसी अन्य साधन की आवश्यकता ही नहीं रहती। क्योंकि जो व्यक्ति सेवा में सच्चे मन से लग जाएगा उसको वह सब कुछ स्वत: ही प्राप्य होगा जिसकी वह आकांक्षा रखता है।
जिन बच्चों में प्रारम्भ से सेवा की भावना का स्वस्थ विकास कर दिया जाता है वे आगे चलकर अपने सेवा-भाव से समाज में प्रतिष्ठा के पात्र बन जाते हैं। वास्तव में समाज के सुंदर निर्माण और भविष्य में उन्नति के लिए बच्चे में सेवा-भाव का विकास करना अत्यंत आवश्यक है। इस सेवा-भाव को विकसित करने के लिए परिवार सबसे सुन्दर संस्था है। अभिभावकों का दायित्व है कि वह स्वयं बच्चों के सामने अपने आचरण से ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें जिसे देखकर बच्चों में सेवा भाव का संस्कार पैदा हो।
सामान्य सेवा कार्यों को भी व्यक्ति यदि जीवन-पर्यन्त करता रहे तो उसका अहं भाव पूर्णत: समाप्त होकर उसके लिए आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर देगा। सेवा करने वाले के रूप में समाज में उत्तम परम्पराओं की स्थापना होती है। एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव से सामाजिक एकता, शान्ति और भाईचारे का आधार बनता है। सेवा कार्यो से उत्तम जीवन मूल्यों की स्थापना होती है।
इतिहास में एक नहीं हजारों ऐसे उदाहरण हैं कि साधारण से साधारण व्यक्ति सामान्य सेवा मार्ग से चलते हुए राष्ट्रों के महान नेता हुए हैं। किंतु यह होता तब ही है जब किसी का सेवा -भाव नि:स्वार्थता की चरम सीमा पर होता है। जरूरी यह है कि बच्चों में सेवा-भाव के विकास के साथ-साथ नि:स्वार्थ भावना का संस्कार भी रोपा जाए। नि:स्वार्थ सेवा करने से दिनों-दिन उसके प्रति उत्साह की वृद्धि होती है। वास्तव में सेवा भाव से ही राष्ट्रोन्नति संभव है, लेकिन जब मानव सेवा सच्ची स्वार्थ रहित,निष्ठा, विश्वास एवं लगनपूर्ण ढंग से हो।
अपने आसपास चारों तरफ नजर दौड़ाइए। कोई बीमार, बूढ़ा या लाचार इंसान दिखलाई पड़े तो उसके कष्ट के बारे में पूछिए। किसी की देह बुखार से तप रही हो तो उसे बुखार उतारने की एक गोली दिला दीजिए। यदि आप वास्तव में कुछ करना चाहते हैं तो बड़े-बड़े अस्पताल खोलने की जरूरत नहीं, जरूरत है तो लोगों की छोटी-छोटी तकलीफों को दूर करने की लेकिन आज और अभी। कोई भूख से व्याकुल होकर हाथ पसारे तो उसे उपदेश देने की बजाय पेट भर भोजन करा दीजिए। उपदेश देना हो तो बाद में दीजिए। उपदेश या निरंतर भीख देने की बजाय उसे रोजगार का अवसर दीजिए या उसका उचित मार्गदर्शन कीजिए।
मानव समाज के हृदय के अंदर हमेशा सेवा भाव होना अति आवश्यक है सेवाभाव से जहा समाज के अंदर फैली कुरीतियां समाप्त होती हैं वही आपसी सौहार्द, अमन चैन शाति के साथ -साथ समाज का विकास भी होता है। हमे मानवता को भूलना नहीं चाहिए। मानव समाज में सबसे कमजोर दबे, कुचले, गरीबों और जरूरतमंदों लोगों की सेवा ही असली पूजा है। वास्तव में सेवा भाव है कर्म नहीं। इस कारण प्रत्येक परिस्थिति में योग्यता, रुचि तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा हो सकती है। सच्चे सेवक की दृष्टि में में कोई भी गैर नहीं होता।
श्रीरामकृष्ण परमहंस का नाम आप सबने सुना होगा। स्वामी विवेकानंद के गुरु थे। उनके जीवन का एक प्रसंग है। एक बार उनके शिष्य गरीबों की सहायता करने, उन पर दया करने को लेकर आपस में चर्चा कर रहे थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस वहा मौजूद थे। उन्होंने कहा, 'गरीबों पर दया करने वाले, उन्हें सहायता देने वाले तुम कौन होते हो? ये गरीब तो 'नारायण' के ही स्वरूप हैं। हमें उनकी सिर्फ सेवा करनी है। संत-महात्माओं के जीवन का अध्ययन करें तो पाएंगे कि उन सभी ने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की है। उनके कार्योँ से हमें इस बात की सीख मिलती है। समाज में जहा अभाव है, वहा अभावग्रस्तों की सेवा करना, उनके जीवन में सुख एवं विकास लाना, यह एक छोटी सी कोशिश है। सेवा भाव हमारे संस्कारों में शामिल है। जब तक हम सिर्फ दूसरे की भलाई की भावना से किसी की सहायता करते हैं तब तक वह परोपकारी कार्य है, परंतु जैसे ही हम ईश्वर का कार्य समझ कर सहायता करते हैं, तब वह 'सेवा' बन जाता है। सेवा ही पुण्य का काम है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।