महर्षि सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा को किया था प्रतिपादित : डा. आनंद
शल्य चिकित्सा आज की नहीं बल्कि ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी में महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रतिपादित किया गया था जबकि आधुनिक सर्जरी का इतिहास मात्र 200 वर्ष पुराना है।
जागरण संवाददाता, गाजीपुर : शल्य चिकित्सा आज की नहीं, बल्कि ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी में महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रतिपादित किया गया था, जबकि आधुनिक सर्जरी का इतिहास मात्र 200 वर्ष पुराना है। यह कहना है जिला आयुर्वेदिक अधिकारी डा. आनंद विद्यार्थी का।
केंद्र सरकार द्वारा आयुष चिकित्सकों को अपग्रेड कर शल्य चिकित्सा के साथ एलोपैथ दवा देने का अधिकार प्रदान करने के विरोध में शुक्रवार को इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के चिकित्सकों द्वारा अपनी ओपीडी को बंद करने पर जागरण के सवाल पर डा. आनंद ने अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने बताया कि आयुर्वेद की आठ शाखाओं में से एक शल्य तंत्र या सर्जरी शुरुआत से ही एक अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी विधा रही है। काशी के महाराजा काशीराज दिवोदास धन्वंतरि आयुर्वेद में शल्य संप्रदाय के जनक रहे हैं। आचार्य सुश्रुत (500 ई.पू.) काशीराज दिवोदास धन्वंतरि के सात शिष्यों में प्रमुख थे। उन्होंने काशी में शल्य चिकित्सा का करमाभ्यास किया और उन्होंने आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक सुश्रुत संहिता की रचना की, जो शल्य चिकित्सा के मूल सिद्धांतों पर प्रणीत शास्त्र है। उन्होंने कई शल्य चिकित्साओं से जुड़ी कारगर विधि और तकनीक के बारे में विस्तार से लिखा है। क्षतिग्रस्त नाक को फिर से बनाना (राइनोप्लास्टी), कान की लौ को फिर से ठीक करना (लोबुलोप्लास्टी), मूत्र थैली की पथरी को निकालना, लैपरोटोमी और सिजेरियन सेक्शन, घाव का उपचार, जले का उपचार, टूटी हड्डी जोड़ना, कोई आंतिरक विद्रधि (फोड़ा), आंत और मूत्र थैली के छिद्रों से जुड़े उपचार, प्रोस्टेट का बढ़ना, बवासीर, फिस्टुला आदि के उपचार की कारगर विधि की खोज, शल्य चिकित्सा में उनकी दक्षता को दर्शाते हैं।
विश्वविद्यालयों में आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली को पढ़ाए जाने की शुरुआत 1927 में बनारस हिदू यूनिवर्सिटी से हुई थी। फिर 1964 में आयुर्वेद में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई की शुरुआत हुई तो आधुनिक युग में आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के प्रयोग का दौर आरंभ हुआ। कई प्रसिद्ध आयुर्वेदिक सर्जन विश्वविद्यालय से जुड़े और आयुर्वेद में शल्य प्रणाली के शिक्षण, प्रशिक्षण, शोध एवं उपयोग के क्षेत्र में सराहनीय योगदान दिया। उनमें से बनारस हिदू यूनिवर्सिटी के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के संस्थापक निदेशक प्रोफेसर केएन उडुप्पा का विशेष योगदान रहा है। प्रोफेसर उडुप्पा 1959 में बीएचयू के साथ आयुर्वेद कालेज के प्रिसिपल और सर्जरी के प्रोफेसर के रूप में जुड़े। प्रोफेसर केएन उडुपा के योग्य नेतृत्व में 1970 के दशक में आयुर्वेद और आधुनिक विधा, दोनों का भरपूर विकास हुआ। आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा के पुनरुद्धार की इस प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। केंद्र सरकार के आयुष मंत्रालय ने पुन: महर्षि सुश्रुत की शल्य चिकित्सा के सिद्धांतों को राजाश्रय देकर पुन: अपने सनातन ज्ञान को संरक्षित व पोषित करने का ऐतिहासिक कार्य किया है। आधुनिक चिकित्सा संघों द्वारा किए जाने वाला विरोध सर्वथा निराधार है और उन्हें अपने वर्चस्व समाप्ति का मात्र डर सता रहा है।
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