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    विभिषीका के गवाह: गाजियाबाद रेलवे स्टेशन की कुछ अनसुनी कहानियां, बंटवारे के समय पाकिस्तान से खून में लथपथ आती थी ट्रेन

    By Geetarjun GautamEdited By:
    Updated: Fri, 13 May 2022 05:25 PM (IST)

    हम इतिहास समेटे शहर का ऐतिहासिक महत्व समेटे खड़े स्थानों के करीब से यूं ही गुजर जाते हैं लेकिन उनकी महत्ता हमें ठहरकर उनके बारे में जानने को कहती है इनमें स्वाधीनता से जुड़े उपक्रमों का इतिहास छिपा है। गाजियाबाद रेलवे स्टेशन भी उसी ऐतिहासिक महत्व का नाम है।

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    गाजियाबाद रेलवे स्टेशन की कुछ अनसुनी कहानियां, बंटवारे के समय पाकिस्तान से खून में लथपथ आती थी ट्रेन

    गाजियाबाद, जागरण संवाददाता। आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है, दैनिक जागरण भी 15 अगस्त से इस उत्सव में संपूर्ण भागीदारी से जुटा है। उस दौर से जुड़ी अनकही, कम जानी सुनी देश के गौरव सम्मान को बढ़ाने वाली कहानियां सामने आ रही हैं। ऐतिहासिक धरोहर, स्थानों से जुड़े किस्से भी सामने आ रहे हैं। विभाजन की विभिषीका के उस दौर में ट्रेन से आने-जाने वालों के गवाह दो स्थल...गाजियाबाद जंक्शन और दिल्ली का लोधी कालोनी स्टेशन भी बने थे।

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    हम इतिहास समेटे, शहर का ऐतिहासिक महत्व समेटे खड़े स्थानों के करीब से यूं ही गुजर जाते हैं, लेकिन उनकी महत्ता कहती है हम ठहरे उनके बारे में जानें, इन पत्थरों में स्थानों में स्वाधीनता से जुड़े उपक्रमों का इतिहास छिपा है। गाजियाबाद रेलवे स्टेशन भी उसी ऐतिहासिक महत्व का नाम है। यहां से भारत-पाकिस्तान बंटवारे की ट्रेन चलती थीं। इस स्टेशन को अंग्रेजों के शासन में ईस्ट इंडियन रेलवे ने बनवाया था। बंटवारे के जख्मों का गवाह बना और समय के साथ इस दर्द को समेटकर गाजियाबाद जंक्शन बन गया।

    कुलदीप तलवार और डीके चोपड़ा।

    खून से लथपथ आती थी ट्रेन

    गाजियाबाद निवासी वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप तलवार पंजाब के सरगोधा मंडल के खुशाब जिले के मूलनिवासी हैं, यह स्थान विभाजन में पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। उस दौर में सरगोधा जिला और खुशाब तहसील थी। तलवार उस समय महज 13 वर्ष के थे जब अपने माता-पिता के साथ भारत आने वाली ट्रेन में बड़ी मुश्किल से सवार होकर पहुंचे थे। रास्ते में कई जगह ट्रेन पर हमला किया गया, जिसमें वह बाल-बाल बचे। भारत में उनकी ट्रेन गाजियाबाद में जिस जगह आकर रुकी, उस ट्रैक का रेलवे ने अब प्रयोग करना बंद कर दिया और यहां अब कैला भट्टा बसा हुआ है।

    कुलदीप तलवार बताते हैं कि देश के विभाजन के समय यहां कोयले का बड़ा गोदाम होता था। इसीलिए यहां से बंटवारे की ट्रेन चलाई गई थी। मुस्लिम पाकिस्तान जाते थे और वहां से हिंदू भारत लौटते थे। पाकिस्तान से आई ट्रेन खून से लथपथ होती थी। यहां पहुंचकर स्थानीय लोगों का इतना सहयोग और प्यार मिला कि पुराने शहर के बजरिया में ही बस गए। अब अशोक नगर में रहते हैं।

    30 सीटों पर सवा सौ यात्री

    जब उस समय पूरा शहर दंगों से जल उठा था। शरणार्थियों को सुरक्षित उनके गंतव्य पहुंचाने के लिए स्पेशल ट्रेनों की व्यवस्था की गई थी। उनमें दिल्ली के निजामुद्दीन, लोधी रोड रेलवे स्टेशन से भी प्रतिदिन लाहौर के लिए ट्रेन चलाई जाती थीं। लोधी रोड स्टेशन से रोज दो ट्रेनें लाहौर के लिए चला करती थीं। इनमें यात्रियों की भीड़ इतनी होती कि पैर रखने तक की जगह नहीं होती। पाकिस्तान के तेज गेंदबाज सिंकदर बख्त, लेखक शाहिद अहमद देहलवी, एसएस अब्दुल्ला भी उन हजारों लोगों में शामिल थे, जिन्होंने यहीं से ट्रेन पकड़ी।

    जानकारों की मानें तो जिस समय लोग ट्रेन पकडऩे के लिए लोधी रेलवे स्टेशन पर पहुंचते तो उनसे गुजारिश भी की जाती कि वो देश छोड़कर मत जावें। इसमें लाला देशबंधु गुप्ता, मीर मुश्ताक अहमद, लाला रूप नारायण, चौधरी ब्रह्म प्रकाश, सरला शर्मा जैसे राजधानी के जुझारू राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल थे। कहा तो यह भी जाता है कि मिंटो रोड में रह रहा परवेज मुशर्रफ का परिवार भी यहीं से ट्रेन में बैठकर पाकिस्तान गया था। शरणार्थियों को ले आने, ले जाने के लिए केवल एक महीने में ही करीब 30 ट्रेन चलाई गई थीं।

    शाहिद अहमद देहलवी बंटवारे के वक्त परिवार के साथ पाकिस्तान गए, छह महीने बाद दिल्ली आए। ट्रेन में सफर को उन्होंने किताब की शक्ल दी। अपनी पुस्तक 'दिल्ली की बिपताÓ में लिखते हैं कि ट्रेन के एक कंपार्टमेंट में 30 सीटें होती थीं लेकिन सवा सौ के आसपास लोग थे। पैर रखने तक की जगह नहीं होती थी। ट्रेन निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से चली थी। मुजफ्फरनगर, देवबंद, राजपुरा, लुधियाना, जालंधर समेत कई अन्य छोटे स्टेशनों से होकर पाकिस्तान पहुंची।

    साल 1883 में बना स्टेशन

    रेलवे के इतिहास से जुड़ी किताबों के मुताबिक गाजियाबाद में साल 1864 में रेल लाइन बिछाई गई थी और इसके अगले साल ही यहां से पहली मालगाड़ी गुजरी थी। साल 1870-79 के बीच दिल्ली, गाजियाबाद, सहारनपुर, जगाधरी व मुल्तान (अब पाकिस्तान में) तक 483 किमी लंबी लाइन का विस्तार हुआ था। गाजियाबाद जंक्शन पर मौजूद दस्तावेजों में लिखा है कि साल 1883 में गाजियाबाद स्टेशन बनाया।

    किवदंती है कि स्टेशन निर्माण के दौरान यहां भूरेशाह की कब्र के बारे में पता चला और स्टेशन निर्माण में बाधा आई तो ईस्ट इंडियन रेलवे की ओर से यहां मजार भी बनवाई गई। यह मजार अब प्लेटफार्म तीन पर है। गाजियाबाद जंक्शन पर मंडल यातायात प्रबंधक के पद से सेवानिवृत हुए डीके चोपड़ा बताते हैं कि मजार के आसपास ही छत के पास सन् 1883 लिखा एक शिलापट भी लगा था। स्टेशन पर मौजूद एक फाइल में भी लिखा है कि गाजियाबाद स्टेशन का निर्माण साल 1883 में हुआ था। स्टेशन पर शेड लगवाने के लिए इसे हटा दिया गया था और अब स्थानीय अधिकारियों को इस शिलापट के बारे में कुछ नहीं पता।

    इस स्टेशन का इतिहास उत्तर रेलवे ने भुला दिया है। सूचना के अधिकार कानून के तहत उत्तर रेलवे से गाजियाबाद के पुराने रेलवे स्टेशन के इतिहास और निर्माण के बारे में पूछा गया तो दिल्ली के मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय से जवाब मिला कि ऐसी सूचना उपलब्ध नहीं है, जबकि गाजियाबाद जंक्शन को साल १८८३ में बनाए जाने के साक्ष्य भी मौजूद हैं।‌

    दो लाख यात्री करते हैं आवाजाही

    अंग्रेजों ने दो प्लेटफार्म के साथ इस स्टेशन का निर्माण किया था, जो आज प्लेटफार्म तीन-चार कहलाते हैं। रेलवे के अधिकांश विभागों के कार्यालय इन्हीं दोनों प्लेटफार्म की बीच अंग्रेजों के समय बनाई गई पुरानी इमारत में हैं। आजादी के बाद यहां फुटओवर ब्रिज बनाया गया और साल 1972 के बाद प्लेटफार्म बढ़ाए गए। साल 1996-97 में फुटओवर ब्रिज का विस्तार हुआ। देश की राजधानी से सटे गाजियाबाद का जंक्शन दिल्ली एनसीआर के महत्वपूर्ण स्टेशनों में है। छह प्लेटफार्म वाले इस स्टेशन के पुनरुद्धार पर काम चल रहा है। गाजियाबाद जंक्शन से अभी करीब एक लाख यात्री रोजाना आवाजाही करते हैं और कोरोना महामारी से पहले यह संख्या दो लाख तक पहुंच जाती थी। अब फिर यात्रियों की संख्या बढ़ रही है।