गाजियाबाद की वो 'पीली कोठी', जिसमें रहते थे ब्रिटिश अफसर; क्या है इसकी खासियत और ऐतिहासिक महत्व
गाजियाबाद की 'पीली कोठी' ब्रिटिश शासनकाल की निशानी है। यह कभी ब्रिटिश अफसरों का निवास स्थान थी और अपनी विशेष वास्तुकला के लिए जानी जाती है। यह इमारत गाजियाबाद के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है और आज भी लोगों को आकर्षित करती है। इसकी पीली रंगत और विशाल बनावट इसे खास बनाती है।

गाजियाबाद मसूरी स्थित पीली कोठी। जागरण
दीपा शर्मा, गाजियाबाद। मसूरी की पीली कोठी, नाम जितना सामान्य है इस इमारत का उतना ही बड़ा ऐतिहासिक महत्व है। दिल्ली लखनऊ एक्सप्रेसवे से बाईं ओर मसूरी में दिखने वाली इस पीली कोठी का निर्माण सन 1864 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कराया था। 1857 में बहादुर शाह जफर को हराने के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा जमा लिया था।
स्थिति को मजबूत बनाए रखने के उद्देश्य से आसपास के इलाकों पर नजर रखने के लिए ब्रिटिश अफसर तैनात किए गए थे और उनके रहने के लिए कोठियों का निर्माण कराया गया था। मसूरी और इसके आसपास के इलाकों पर नजर रखने की जिम्मेदारी दिल्ली में यमुना नदी पर लोहे का पुल बनाने वाले इंजीनियर जान माइकल्स को दी गई थी। जिनके लिए मसूरी में कोठी बनाई गई थी।
इसके अलावा अंग्रेजों ने मसूरी में नहर की झाल पर आठ चक्कियों का निर्माण कराया था। निर्माण कार्य के लिए अंग्रेजों ने विशेष तौर पर एक ईंट भट्टा लगवाया था। जान माइकल्स ने यमुना नदी पर लोहे का पुल ही नहीं दिल्ली कलकत्ता रेल ट्रैक बिछाने वाले प्रोजेक्ट में भी वह मैकेनिकल इंजीनियर थे।
उनके काम से खुश होकर ब्रिटिश सरकार ने जागीर इनाम के तौर पर इस कोठी के साथ उन्हें 12 गांव भी दे दिए गए थे। उस समय की व्यवस्था के अनुसार 12 गांवों के किसान माइकल्स को लगान देते थे। बाद में देश में ब्रिटिश शासन की मजबूत स्थिति हो गई। ऐसे में माइकल्स को निगरानी की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया था।
जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्होंने कोठी अपनी बेटी ए एल कोपिंगर के नाम कर दी थी। कापिंगर की शादी माइकल्स ने अपने मैनेजर करकनल से कर दी थी। जिसके बाद करकनल इस कोठी के मालिक बन गए । अब कोठी के साथ 12 गावों की खेती के लगान का अधिकार भी करकनल को मिल गया था।
पक्के मकान बनाने पर लगा दिया था प्रतिबंध
करकनल ने आसपास के क्षेत्र में पक्के मकान बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिससे पूरे इलाके में केवल एक कोठी ही श्रेष्ठ रहे। उन्होंने अपने बेटे और बेटी को पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया और स्वयं कोठी में अकेले रहते थे। 1947 में देश की आजादी के बाद भी करकनल इंग्लैंड नहीं लौटे।
इसके बाद 1952 जमींदारा उन्मूलन एक्ट आने पर लगान व्यवस्था खत्म हो गई। करकनल को किसानों से लगान मिलना बंद हुआ तो उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई। उन्होंने अवैध रूप से जमीन भी बेचीं। बाद में कोठी बेचने के लिए उन्होंने अपने यहां काम करने वाले जमादार से कोठी खरीदने के लिए ग्राहक लाने को कहा।
जमादार ने दूध व्यापारी हाजी नजीर अहमद से पीली कोठी खरीदने की बात कही। करकनल 1977 तक अपनी कोठी में रहे। इसके बाद 1977 में वह दूध व्यापारी हाजी नजीर अहमद को पीली कोठी तीन लाख रुपये में बेचकर इंग्लैंड लौट गए। हाजी नजीर के बाद यह कोठी उनके बेटे पूर्व सांसद अनवार अहमद के पास आ गई। वर्तमान में अनवार अहमद के पुत्र ताहिर अली और इफ्तिखार अहमद परिवार के साथ रह रहे हैं।
मजबूती से बनाई गई है इमारत
तीन बीघे में बनी इस चार मंजिला कोठी में 36 कमरे हैं। ग्राउंड फ्लोर पर एक बड़ा डाइनिंग रूम बनाया गया है। जिसमें पुरानी टेबल और कुर्सियां रखी हुई हैं। कोठी में बेल्डियम के छह बड़े शीशे लगे हुए हैं। कोठी में खिड़की और चौखट के साथ अन्य कार्य शीशम और सागौन की लकड़ी से बनाए गए हैं।
कमरों में सौफा और छोटे छोटे स्टूल रखे हुए हैं। ऊपर जाने के लिए लकड़ी की ही सीढ़ियां बनाई गई हैं। सर्दी में कमरों को गर्म रखने के लिए आतिशदान बने हुए हैं। 150 से अधिक पुरानी इमारत आज भी मजबूती के साथ खड़ी हुई है। हालांकि रखरखाव के अभाव में इमारत के कुछ हिस्से से प्लास्टर टूटकर गिर रहा है।
कई फिल्मों की हो चुकी है शूटिंग
कोठी में कई फिल्मों और सीरियल की शूटिंग हो चुकी है। सुपर-6, भंवर और रन जैसी कई फिल्मों की शूटिंग हुई है। अभिषेक बच्चन रन फिल्म की शूटिंग के लिए दो दिन पीली कोठी में आए थे। ताहिर ने बताया कि वह दिल्ली से आते थे शूटिंग करके चले जाते थे। कहां तक आसमां तक फिल्म की शूटिंग 15 दिनों तक यहां हुई थी।

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