विरासत की समृद्ध परंपरा संजोए 301वें वर्ष में फर्रुखाबाद
राजेश औदीच्य, फर्रुखाबाद : पांच हजार वर्ष के महाभारतकालीन गौरव व विरासत को सहेजे पांचाल प्रदेश को
राजेश औदीच्य, फर्रुखाबाद :
पांच हजार वर्ष के महाभारतकालीन गौरव व विरासत को सहेजे पांचाल प्रदेश को 27 दिसंबर 1714 के दिन फर्रुखाबाद का नाम मिला। स्थापना के 301वें वर्ष में हम प्रवेश कर गए। जिले के 83.79 किलोमीटर की सीमा तक जीवन रेखा बनी मां गंगा के आंचल में हमारा जिला धर्म अध्यात्म, संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की विरासत से समृद्ध रहा। 1857 की क्रांति हो या फिर देश के लिए कोई आंदोलन, हर बार यहां से क्रांति की धारा फूटी। भगवान गौतम बुद्ध की पद रज से सुगंधित संकिसा हो या पांचाल देश की राजधानी और जैन तीर्थंकरों के उपदेशों का गवाह कंपिल। पूरा क्षेत्र जीवंतता से जगमग पुरातन धरोहरों को आंचल में समेटे है। बस आस है इनके संरक्षण और विकास की।
पर्यटन मानचित्र पर प्रभावी ढंग से स्थापित हो अपना फर्रुखाबाद। स्थापना पर्व पर ऐसी ही आकांक्षा पली है, जनमानस ने। तारीखी नजर से फर्रुखाबाद 300 वर्ष पूरे कर चुका है। नवाब मोहम्मद खां बंगश ने दिल्ली के शासक फर्रुखशियर के नाम पर इसे बसाया। नवाबी दौर से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए यह निरंतर प्रगति के हस्ताक्षर अंकित कर रहा है। वस्तुत: फर्रुखाबाद का इतिहास तो पौराणिक काल से समृद्ध है। उस समय यह पांचाल क्षेत्र कहलाता था, यह शहर पांचाल प्रदेश का एक भाग। फर्रुखाबाद की स्थापना से पहले ही कंपिल, संकिसा, कन्नौज (अब अलग जनपद), श्रंगीरामपुर और शमसाबाद प्रसिद्ध थे। पांचाल देश की राजधानी कंपिल में द्रोपदी का स्वयंवर हुआ। राजा द्रुपद की सेना की छावनी शहर में ही थी। ¨हदू और जैन दोनों धर्मावलंबियों के लिए कंपिल का खास महत्व है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ने यहां पहला उपदेश दिया। 13वें तीर्थंकर विमल देव ने अपना जीवन व्यतीत किया। महात्मा गौतम बुद्ध ने संकिसा में धर्मोपदेश दिया। चीनी यात्री ह्वेन्सांग, फाह्यान, इब्नबतूता और अलबरूनी का भी आगमन हुआ।
नवाब बंगश के समय यहां के इतिहास ने 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में एक नई करवट ली। दिल्ली के तत्कालीन शासक के नाम पर बसाया गया यह शहर नवाब की राजनीतिक सूझबूझ को दर्शाता है। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में फर्रुखाबाद के पौरुष ने मशाल जलाई। यहां के 161 लोगों ने फांसी, 246 ने कालापानी की सजा को गले लगाया। काशी की ही तरह यहां गली-गली में शिवालय हैं तो नाम अपराकाशी भी पड़ गया। बनारसी तबला घराने को पूर्वी बाज में वर्गीकृत किया गया, जिसमें लखनऊ और बनारस घराने के साथ फर्रुखाबाद घराना भी शामिल है। काशी में गंगा किनारे आबादी और घाटों का सांस्कृतिक महत्व है तो यहां भी गंगा के पश्चिमी तट पर आबादी प्राचीनकाल से है। गंगा तट पर घटियाघाट(अब पांचाल घाट), टोकाघाट में ऐतिहासिक विश्रांतें प्राचीन निर्माण भी धरोहर हैं, पर हैं सब उपेक्षा की शिकार। कविवर वचनेश की कर्मभूमि और छायावाद की दीपशिखा महादेवी वर्मा की जन्मभूमि के रूप में साहित्य जगत को गौरव मिला। ठुमरी सम्राट ललनपिया ने देश भर में शास्त्रीय संगीत को समृद्धता दी। गंगा तट पर लगने वाला माघ मेला श्री रामनगरिया इलाहाबाद के बाद सबसे बड़ा मेला है। स्थापना के बाद से बहुत कुछ प्रगति हुई। वहीं काफी कुछ समय के साथ नष्ट हो गया। जो बचा है उसे भावी संततियों के लिए सुरक्षित व संरक्षित करने की आवश्यकता है। ऐतिहासिक धरोहरें मात्र ईंट-चूने के ढेर नहीं हैं, अपितु अतीत के मौन प्रत्यक्षदर्शी हैं।
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