एकलव्य खोज कर अर्जुन गढ़ने में जुटे द्रोणाचार्य अवार्डी तीरंदाज संजीव, 70 बच्चों को दे रहे हैं प्रशिक्षण
अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता संजीव सिंह ने सेवानिवृत्ति के बाद मिशन एकलव्य शुरू किया है जिसका उद्देश्य गांव के बच्चों को तीरंदाजी सिखाना है। वह अपने स्कूल के माध्यम से 70 बच्चों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। संजीव का लक्ष्य 2032 और 2036 के ओलंपिक में इन बच्चों को शामिल कराना है ताकि वे देश का प्रतिनिधित्व कर सकें।

महेंद्र कुमार त्रिपाठी, देवरिया। अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित कन्हौली गांव के संजीव सिंह टिस्को, जमशेदपुर के वरिष्ठ अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हैं। रिटायरमेंट के बाद बच्चों को खेल में बेहतर अवसर प्रदान करने में जुट गए। तीरंदाजी की कला को गांव के हर बच्चे तक पहुंचाने के लिए वह अपने स्कूल के जरिये एकलव्य मिशन चला रहे हैं।
ट्रेनिंग माडल सिर्फ तीरंदाजी के तकनीकी पहलुओं तक सीमित नहीं है, वह बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाने पर भी जोर दे रहे हैं। वर्तमान में वह 70 बच्चों को तीरंदाजी की ट्रेनिंग दे रहे हैं। जिले के कन्हौली गांव के रहने वाले संजीव सिंह रिटायरमेंट के बाद कुछ नया करने को सोचा। उसके बाद अपने गांव आए।
लोगों से विमर्श करने के बाद गांव में वर्ष 2023 में कक्षा एक सात तक की शिक्षा के लिए श्रीनेत ग्लोबल स्कूल खोला। जिसमें 225 बच्चे हैं। उसमें से चुनिंदा 100 बच्चों को तीरंदाजी की ट्रेनिंग दे रहे हैं। दो साल से चली आ रही इस मुहिम का उद्देश्य है, ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को एकलव्य की तरह प्रशिक्षित कर तीरंदाजी में उत्कृष्टता दिलाना।
संजीव सिंह के प्रयासों से गांव के बच्चे न केवल खेल में माहिर बन रहे हैं, बल्कि जीवन के हर लक्ष्य को भेदने की क्षमता विकसित कर रहे हैं। इस काम में उनकी पत्नी डा. मधु भी सहयोग कर रही हैं। संजीव को अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार मिलने के बाद कई देशों से आफर मिला। वह उन आमंत्रण को सिरे से नकार दिया।
वे बच्चों में अनुशासन, धैर्य और एकाग्रता का विकास करने के लिए ध्यान और योग जैसी गतिविधियों को भी शामिल करते हैं। हर रोज नियमित पढ़ाई के अलावा तीन से छह घंटे तीरंदाजी की ट्रेनिंग दी जाती है। जो 18 वर्ष की उम्र होने पर सबकी 10 हजार घंटे की अभ्यास हो चुुकी होगी। जो किसी भी कला में विश्व स्तरीय निपुणता लाने के लिए जरूरी है। तीरंदाजी की ट्रेनिंग निश्शुल्क है। एक धनुष की कीमत 10 हजार से एक लाख तक की है। यह सब बच्चों को निश्शुल्क दी जा रही है।
संजीव ने सामाजिक भेदभाव को तोड़कर हर वर्ग के बच्चों को समान अवसर दिए हैं। तीरंदाजी के माध्यम से, बच्चों को अनुशासन, टीम भावना और आत्मनिर्भरता की शिक्षा मिल रही है। यह न केवल खेल में बल्कि उनके जीवन के हर पहलू में सकारात्मक बदलाव लाने का जरिया बना है। गांव के साधारण संसाधनों के बावजूद, उनके दृढ़ निश्चय और समर्पण ने बच्चों को अंतरराष्ट्रीय स्तर के तीरंदाज बनने के सपने दिखाए हैं।
संजीव के मिशन एकलव्य का एक संदेश यह भी है कि जो लोग गांव को छोड़कर शहर व दुनिया के अन्य देशों में बस गए हैं। उन लोगों को अपनी मातृ व जन्मभूमि में आकर रचनात्मक कार्य करें तो भारत का गांव जल्द तरक्की की राह पर पहुंचेगा। यह पीएम मोदी के 2047 तक विकसित भारत में भागीदार बन सकते हैं।
संजीव की नजर तीरंदाजों को वर्ष 2032 व 2036 में होने वाले ओलंपिक खेल में बच्चों को शामिल कराना है। जो बच्चे इस समय छह से आठ वर्ष के हैं, वह 2032 व 2036 में 18 से 21 साल के हो जाएेगे। वह पद जीतने में सक्षम हो सकते हैं। उसी लक्ष्य को लेकर ट्रेनिंग दी जा रही है।
देश स्तर के 12 बच्चों का आवासीय चयन
श्रीनेत ग्लोबल स्कूल में बीते दिनों कई प्रांतों के तीरंदाज बच्वों की परीक्षा हुई। जिसमें 10 से 16 वर्ष तक के 12 छात्रों का चयन किया गया।जिसमें छह छात्र व छह छात्राएं हैं। जिसमें कर्नाटक, केरल, उत्तर प्रदेश,छत्तीसगढ़,हरियाणा, महराष्ट्रा,मध्य प्रदेश शामिल है। इन बच्चों को स्टेट बैंक आफ इंडिया की तरफ से पांच-पांच लाख रुपये की छात्रवृत्ति मिल रही है। सभी छात्र निर्बल वर्ग के हैं। इन सभी को आवासीय प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
तीरंदाजी को मिला इनका सहयोग
संजीव सिंह के सपनों को साकार करने में सहयोग करने वाली कंपनियों में ओएनजीसी, स्टेट बैंक, इंडियन आयल, एसपीसीआइ की तरफ से ओलंपिक ट्रेनिंग के लिए सहयोग दिया जा रहा है।
मेरा सपना है कि उनके गांव के बच्चे एकलव्य की तरह समर्पित और प्रतिभाशाली बनें। अगर गांवों में बच्चों को सही दिशा और संसाधन मिलें, तो वे भी विश्वस्तरीय तीरंदाज बन सकते हैं। गांव के बच्चे एक दिन ओलंपिक और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करें। इसके लिए निरंतर प्रयास कर रहा हूं। बच्चों को आधुनिक संसाधन, कोचिंग और अवसर मिले, ताकि उनका सपना साकार हो सके। नया सेंटर बनाने के लिए भी सोच रहा हूं। वजह बच्चों की संख्या बढ़ रही है।
- संजीव सिंह,
अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित
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