भक्ति मार्ग से भगवत प्राप्ति संभव
देवरिया: कसया रोड स्थित भक्तिवाटिका में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर श्रीमद्भागवत कथा के तीसरे दिन शुक्रवार को जगद्गुरु स्वामी रामानुजाचार्य राजनारायणाचार्य जी महाराज ने कहा कि सुखी जीवन जीने के दो मार्ग होते हैं। पहला ज्ञान और दूसरा भक्ति मार्ग। ज्ञान मार्ग में वैराग्य की प्रधानता है। जबकि ज्ञान मार्ग में सब कुछ त्यागना पड़ता है। भगवत प्राप्ति भक्ति मार्ग से ही संभव है।
स्वामी जी ने श्रद्धालुओं को कथा का रसपान कराते हुए कहा कि भक्ति ऐसी होनी चाहिए जो सूतवती अर्थात वेद शास्त्र एवं पुराणों के अनुसार हो। उसी से हृदय का परिमार्जन होता है। मन भगवान के श्री चरणों में अवस्थित हो जाता है। शास्त्र विरुद्ध भक्ति करने से वह भक्ति उत्पात का कारण बन जाती है, जिससे व्यक्ति में अभिमान आ जाता है। भक्ति में भाव की प्रधानता होती है।
उन्होंने कथा का रसपान कराते हुए कहा कि पूजा, पाठ, यज्ञ तो रावण, कुंभकर्ण हिरण्यकश्यप आदि भी करते थे, लेकिन उनका भाव समाज, राष्ट्र तथा माता-पिता, गुरु, असहाय, रोगी, निर्धन की सेवा के लिए नहीं था। केवल ये लोग अपने पूजा, पाठ, यज्ञ के द्वारा ऐश्वर्य की प्राप्ति एवं अहंकार के लिए करते थे। इसी कारण किसी इतिहास, पुराण में रावण और कंस आदि को भक्त न कह कर उन्हें राक्षस कहा गया है। भक्त तो वर्ण एवं आश्रम की मर्यादाओं का पालन करते हुए निरहंकार, निद्र्वद, निर्मम भाव से सर्वज्ञ भगवान वासुदेव की सत्ता देखकर सभी की सेवा करता हैं। जिसका विशुद्ध भाव होता है। उसी के हृदय में निर्मल भगवत-भक्ति का उदय हो जाता है। भक्ति के उपासक का हृदय प्रेम से परिपूर्ण होता है। वह भक्त सभी में भगवान का दर्शन करता है। उसकी दृष्टि में ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं रह जाता है। वह भगवान से भी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता है। ऐसे अनेकों भक्तों की गाथा भागवत कथा में निबद्ध है। जैसे धु्रव, प्रहलाद, गोपांगनाएं आदि इसके ज्वलंत उदाहरण है। दंभ, पाखंड, ईष्र्या, द्वेष, हिंसा से तो भक्ति रुग्ण हो जाती है। उस भक्ति के सहारे भगवान तक पहुंचना संभव नहीं हो पाता है। कई तरह के वेशभूषा धारण करने से या विविध प्रकार के यज्ञ, अनुष्ठान, पूजा, पाठ करने से ही भक्ति बलवती नहीं होती है। नि:स्वार्थ भाव से भक्ति करने पर भी भगवान की प्राप्ति हो जाती है।
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