हल्कू अब भी खेत में काटता है पूस की रात
बस्ती: कथा सम्राट मुंशी प्रेम चंद ने 20वीं सदी के प्रारंभ में एक कहानी लिखी थी पूस की रात। कहानी का
बस्ती: कथा सम्राट मुंशी प्रेम चंद ने 20वीं सदी के प्रारंभ में एक कहानी लिखी थी पूस की रात। कहानी का मुख्य पात्र गरीब हल्कू पूस की एक रात एक मोटी चादर के सहारे खेत की रखवाली कर रहा है, आग जलाकर तापता है आग से मन व शरीर को सुकून देने वाली गर्माहट इतनी अच्छी लगती है कि वहीं सो जाता है, जंगली पशु लहलहाती फसल चर के खत्म कर देते हैं और वह सोया ही रह जाता है। हल्कू का कुत्ता झबरा रात भर भौंक-भौंक कर पशुओं को भगाने का असफल प्रयास करता है और सुबह तक बेदम हो जाता है। इस कहानी को लिखे मुंशी जी को तकरीबन सौ बरस हो गए। इन सौ वर्षों में हजारों पूस की रातें आईं। हम धरती से चांद और अंतरिक्ष की यात्रा कर आए। अपने देश में बैठे-बैठे दुश्मन देश को तबाह करने के लिए मिसाइलें बना लीं। मोबाइल फोन और इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया से पल भर में जुड़ जाते हैं। कहने का मतलब यह कि तरक्की की राह में शेष दुनिया के साथ हम चलते ही नहीं हैं बल्कि आगे निकल जा रहें हैं पर इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि हल्कू आज भी है। अब भले सेठ साहुकारों से नहीं सताया जाता है लेकिन कर्ज तो लेता है, बैरन मौसम से हर वर्ष जूझता है। कभी सूखे की मार सहता है तो कभी बाढ़ की। प्रेमचंद का हल्कू तीन रुपये का कंबल नहीं खरीद सका और साहूकार को सूद चुका दिया। कंबल खरीद लेता तो पूस की रात में जाड़े की मार न सहता, तब शायद उसकी फसल बच जाती और झबरा बेदम न होता। आज का हल्कू बैंक और मौसम की मार झेलता हुआ उन्हीं नीलगायों से अपनी फसल की रखवाली कर रहा है जिनसे मुंशी जी का हल्कू अपनी फसल नहीं बचा सका था। आज भी हल्कू, खेत में मचान बना कर पशुओं को भगाता है। कभी उसके साथ झबरा रहता है तो कभी वह टीन का डब्बा बजाता है। नीलगाएं और सुअर वैसे ही फसलों को तबाह कर रहीं हैं जैसे पहले किया करती थीं।
इन सौ वर्षों में हमने जो भी तरक्की की पर आज के हल्कू के खेत की रखवाली के लिए ऐसा सस्ता उपाय नहीं खोज सके जो उसकी फसल बचाने में सहायक हो। सभी हल्कू न तो बैट्री या बिजली चालित बाड़ लगवा सकते हैं और न ही खेत की तारबंदी ही कर सकते हैं जिससे उनकी फसल बच जाए। हमारे इंजीनियर मोटी तनख्वाह पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए तरह-तरह के आविष्कार तो करते हैं पर उस वर्ग के लिए आज भी कुछ ऐसा नहीं किया जा सका जो उनको अनाज उपलब्ध कराता है। देश की एक अरब से अधिक आबादी को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने वाला हल्कू खेत में अब भी पूस की रात काट रहा है, जंगली जानवरों के डर से आलू, अरहर की खेती छोड़ रहा है। हर साल नीलगायों द्वारा अपनी फसल रौंदे जाने की पीड़ा सहता है पर कर कुछ नहीं पाता है। जरूरत इस बात की है कि हल्कू का खेत जंगली पशु से बचाने के लिए उसकी क्षमता के अनुरूप तकनीक इजाद की जाए। खेत के चारो तरफ साड़ी और धोती की बाड़ लगा कर अथवा धोखे का पुतला खड़ा देख कर जंगली जानवर अब नहीं भागते हैं। वह कपड़े की बाड़ के नीचे से घुस जाते हैं, पुतले के बगल से खेत में घुस कर पूरी फसल तबाह कर देते हैं। खेती यदि उद्योग का दर्जा पाती तो शायद इस तरफ फायदा देख हल्कू की इस पीड़ा के प्रति सकारात्मक सोच बनती।
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