दरगाह वालों को रास नहीं सरकारी ओहदे
जागरण संवाददाता, बरेली: जिन दरों पर आकर राजे-रजवाड़े और हुक्मरान झुकते रहे हैं, उन दरों के जिम्मेदारों को सरकारी ओहदे रास नहीं आ रहे हैं। रेहान रजा खां रेहाने मिल्लत से लेकर मौलाना अहसन रजा कादरी उर्फ अहसन मियां और मौलाना तौकीर रजा खां व आबिद खां इस बात का सुबूत हैं। यह तीसरा मौका है जब दरगाह आला हजरत से जुड़े किसी शख्स को ओहदे से इस्तीफा देना पड़ा है।
आला हजरत फाजिले बरेलवी की अकीदत से दुनियाभर में सुन्नी मुसलमानों के दिल धड़कते हैं। उन्होंने उस वक्त में रामपुर के नवाब हामिद अली खां से मिलने से इन्कार कर दिया था। रियासत के प्रधानमंत्री के हाथ भेजे गए डेढ़ हजार रुपये भी लौटा दिए थे। ऐसे ही आला हजरत के साहबजादे मुस्तफा रजा खां मुफ्ती आजम हिंद ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के वक्त मांगने पर मिलने से इंकार कर दिया था। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. नरसिंह राव का विरोध भी इसी दरगाह पर हुआ था लेकिन वक्त के थपेड़ों के साथ वर्तमान का अतीत से साथ छूटता चला गया। आला हजरत खानदान में सियासी ओहदे की शुरूआत मौलाना रेहान रजा खां से हुई कांग्रेस ने उन्हें एमएलसी बनाया। उन्होंने 1982 में मुरादाबाद दंगे को लेकर कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। वह दरगाह आला हजरत के सज्जादानशीन मौलाना सुब्हानी मियां समेत अंजुम मियां, तौकीर मियां, तौसीफ मियां और तसलीम मियां के वालिद थे। इसी खानदान में नायब सज्जादानशीन मौलाना अहसन मियां से लालबत्ती का सिलसिला शुरू हुआ। बसपा सरकार में उन्हें मदरसा शिक्षा परिषद का अध्यक्ष बनाया गया। वह सियासत में रम नहीं पाए और आखिरकार कुछ माह बाद ही इस्तीफा दे दिया। उनके बाद यह ओहदा दरगाह के खादिम आबिद खां को मिला, जिन्होंने आज इस्तीफा दे दिया है। आला हजरत खानदान से मौलाना तौकीर रजा खां भी मंत्री बने हैं। वह दो मर्तबा इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं।
तौकीर मियां के साथ रहेंगे आबिद
वह रहेंगे दरगाह आला हजरत पर ही। बड़े भाई ने उनके लिए घर के दरवाजे बंद कर लिए तो क्या हुआ, छोटे भाई तो हैं न। लालबत्ती से नाता टूटने के बाद राज्य एकीकरण विभाग के पूर्व उपाध्यक्ष आबिद खां का नया ठिकाना मौलाना तौकीर रजा खां की अगुवाई वाली आल इंडिया इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल बनेगी। लालबत्ती मिलने से पहले आबिद खां दरगाह आला हजरत के सज्जादानशीन मौलाना सुब्हान रजा खां उर्फ सुब्हानी मियां के सचिव थे। खादिमों में सबसे खास थे। जब रजवी बनाम सकलैनी विवाद तूल पकड़ा तो आबिद पर इस्तीफे के लिए दबाव बना। वह हजरत के घर पर बेहोश हो गए। तब उन्हें जिला अस्पताल ले जाकर भर्ती करा दिया गया। उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। नौबत यह आई कि सुब्हानी मियां ने उन्हें अपने सचिव पद से यह कहते हुए हटा दिया कि आबिद के लिए उनके घर के दरवाजे बंद हो गए हैं। तभी तय हो गया था कि हजरत की नाराजगी गुल खिलाएगी। आखिरकार नौबत लालबत्ती से नाता टूटने की आ गई। यह दिन आए उससे पहले ही आबिद सज्जादानशीन के छोटे भाई मौलाना तौकीर रजा खां की शरण में पहुंच चुके थे। उनके भाईचारा रैलियों में बढ़चढ़कर हिस्से ले रहे थे।
उसी मोड़ पर थमा सफर
आला हजरत के उर्स से पहले शुरू हुआ किस्सा उर्स से पहले ही खत्म हो गया। आबिद को जब लालबत्ती मिली तो पिछले साल उर्स की तैयारियां चल रही थीं। अब जब उनसे लालबत्ती छिन रही है तो भी सात दिन बाद उर्स शुरू होने जा रहा है। जब वह मंत्री का ओहदा लेकर आए थे तो भी सरकार दबाव में थी, अब जब हट रहे है तो भी सरकार दबाव में है। जिस हथियार की धार से आबिद फर्श से अर्श पर पहुंचे, वही हथियार उन्हें निपटाने में कारगर रहा।
यह भी इत्तेफाक
ताज मिला तो शनिवार था, बेताज हुए तो भी इत्तेफाक से शनिवार का दिन था। दरगाह पर आबिद खां की जगह उनका काम देखने वाले मुफ्ती मुहम्मद सलीम नूरी बताते हैं-उर्स से पहले हम लोग 5 जनवरी 2013 को नायब सज्जादानशीन मौलाना अहसन रजा कादरी की कयादत में मारहरा में दरगाह पर चादरपोशी करके लौट रहे थे। तब आबिद खां को मंत्री बनाने की इत्तला मिली। इत्तेफाक देखिये आज फिर वहीं से लौट रहे हैं तो उनके हटने की खबर मिली। तब भी शनिवार था, अब भी शनिवार है।
अब किसे मिलेगी लालबत्ती
आबिद खां के हटने के बाद लालबत्ती किसे मिलेगी उसे लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। इसके लिए सज्जादानशीन के दामाद सैयद आसिफ मियां का नाम उछलता रहा है। उनसे बात की तो जवाब मिला, हजरत यानि सुब्हानी मियां तय करेंगे। लालबत्ती ली जाए या नहीं। बहरहाल निगम चेयरमैन और उपाध्यक्षों को लालबत्ती दिए जाने पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है। अगली सुनवाई के बाद निर्णय से तय होगा कि लालबत्तियां रहेंगी या जाएंगी।
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