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    Jagran Columm: हमने सुना है- प्रमुख सचिव को खूब पता है कि कहां गड्ढे हैं और कहां कीचड़

    By Abhishek PandeyEdited By:
    Updated: Thu, 16 Jan 2020 01:52 PM (IST)

    नोडल अधिकारी एवं प्रमुख सचिव नवनीत सहगल के लिए यह जिला पुरानी जमीन है। उन्हें खूब पता है कि कहां गड्ढे हैं और कहां कीचड़। पिछली बार दौरे पर आए थे तब भ ...और पढ़ें

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    Jagran Columm: हमने सुना है- प्रमुख सचिव को खूब पता है कि कहां गड्ढे हैं और कहां कीचड़

    जेएनएन, बरेली। नोडल अधिकारी एवं प्रमुख सचिव नवनीत सहगल के लिए यह जिला पुरानी जमीन है। उन्हें खूब पता है कि कहां गड्ढे हैं और कहां कीचड़। पिछली बार दौरे पर आए थे तब भी पोल खोलकर रख दी। चार लोगों पर कार्रवाई कर गए। अब गुरुवार को फिर आ रहे हैं तो स्थानीय अफसरों ने उनके होमवर्क के आगे घुटने टेक दिए। यह कहकर कि पता नहीं वे निरीक्षण के लिए किस तरफ घूम जाएं। पिछली बार भी अचानक गांवों की तरह गाड़ी दौड़ा दी थी, इसलिए इस बार उस तैयारी पर ज्यादा फोकस नहीं है। अफसर दूसरा सिरा बचाने में डटे हैं। रोजाना विकास भवन में बैठकर कर आंकड़ों की चिट्ठा मजबूत किया जा रहा है। रटे जा रहे हैं। इस उम्मीद के साथ कि निरीक्षण में तो सबकुछ उन पर ही निर्भर है। समीक्षा बैठक में जब हालात मालूम करें तब तो कम से सही आंकड़े बता ही दें।

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    गाय बचाएं या पैसा

    प्रदेश की सरकार ने गायों को ठिकाना बनाने के लिए आश्रय स्थल निर्माण की रकम दे दी मगर देखरेख करने वालों के बजट का इंतजाम नहीं हो सका। चूंकि गाय का मामला बेहद संवेदनशील है इसलिए विकास भवन वाले साहब ने अपने स्तर से वहां केयर टेकर रख दिया। थोड़े दिन तो वह काम चलाता रहा मगर लगातार तीन महीने तक पगार नहीं मिली तो सब्र जवाब दे गया। काम छोड़ दिया। पशुपालन विभाग वाले इससे मुश्किल में आ गए। इस बीच लखनऊ में बैठने वाले बड़े साहब से बात हुई तो यहां के अफसरों ने मौके पर चौका मारने की कोशिश की। केयर टेकर के मानदेय की बात रखी तो लखनऊ वाले साहब ने दो टूक कह दिया- यह आपकी समस्या है। आप ही निदान करें कि गायों की देखरेख कैसे होगी। अब यहां वाले साहब बेहद परेशान हैं। वह समझ नहीं पा रहे कि पैसा बचाएं या गाय।

    अब नाराजगी तो नहीं

    विधायक जी सत्ता पक्ष के हैं इसलिए नाराजगी तो हो ही सकती है। पिछली बार ऐसा ही हुआ था। पुराने वाले डीएम साहब लोकार्पण, शिलान्यास कर आते थे और विधायक जी को पता भी नहीं चलता था। ऐसा कभी भोजीपुरा में हुआ तो कभी मीरगंज में। विधायक जी ने इसकी इसकी शिकायत प्रभारी मंत्री से कर दी। कहा दिया कि न सूचना, न पत्थर पर हमारा नाम डाला जाता है। सुना तो मंत्री कह गए- भई, विधायक जी को जरूर बुलाया करें। इस बीच पुराने वाले डीएम साहब शहर से विदा हो गए। नए आए तो माहौल को भांप लिया। गांव-गांव जाकर वहां के हालात सुधारने को जो अभियान चलाया है, उसमें क्षेत्र के विधायक जी को सबसे पहले बुला लेते हैं। नई योजनाओं की शुरूआत उन्हीं के हाथों कराई जाती है, समारोह में फीता कटवाकर। अब तो माहौल सध गया होगा, विधायक जी को शायद कोई नाराजगी नहीं होगी।

    वोट या बरातघर की फिक्र

    शहर से सटे गांव के प्रधान जी को नया चुनाव आने पर भविष्य की फिक्र सताने लगी। वोटरों को रिझाने के लिए सरकारी बरातघर बनवाने के लिए केंद्रीय मंत्री से सिफारिश लगवाई। उनका फोन जाने के बाद विकास भवन वालों ने कह दिया कि आपकी जमीन पड़ी है, उसी पर बनवा देते हैं। प्रधानजी ने पैर खींच लिए। अपनी कीमती जमीन जाती दिखी तो वोटर रिझाने का हुनर गायब हो गया। बोले कि मेरी जमीन नहीं, सालों पहले एक सीडीओ को दी गई जमीन पर बनवा दीजिए। कहकर प्रस्ताव बना दिया मगर विकास भवन वाले साहब राजी नहीं हुए। यह कहते हुए कि किसी दूसरे की जमीन पर निर्माण कैसे करा दें। मगर प्रधान जी सुनने को तैयार नहीं। दूसरे के नाम वाली जमीन पर बरातघर के लिए साहब को फोन किए जा रहे हैं। वोट व बरातघर की फिक्र में कभी रात बारह बजे तो कभी सुबह पांच बजे।