अचानक बंद कर दी थी चलती फैक्ट्री
वरिष्ठ संवाददाता, बरेली : रबर उत्पाद के लिए एशिया में मशहूर रही फतेहगंज पश्चिमी की रबर फैक्ट्री यानी सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लिमिटेड के लिए 1999 में 15 जुलाई की वह शाम काले अध्याय के रूप में दर्ज हुई। दोपहर दो बजे से शुरू होकर रात्रि 10 बजे तक चलने वाली फैक्ट्री की दूसरी शिफ्ट में करीब तीन सौ कर्मचारी रोजाना अपने काम में मशगूल थे। रात्रि आठ बजे तक सब ठीक रहा, दो घंटे बाद उनको घर लौटना था लेकिन तभी मैनेजमेंट ने आदेश दिया कि सारे कर्मचारी काम बंद कर दें। मशीनें रोक दी गई।
इस फैसले से सब अवाक थे कि काम बंद क्यों कराया जा रहा है। किसी ने कहा- ऊपर से आदेश आया है कि फैक्ट्री कुछ दिन के लिए बंद रहेगी। सारे कर्मचारी मैनेजर के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा- एमडी और चेयरमैन का आदेश आया है। फैक्ट्री कुछ दिन के लिए बंद रहेगी। इसके बाद नोटिस चस्पा कर दिया गया। इसमें वर्किंग कैपिटल की कमी की वजह से फैक्ट्री कुछ दिन के लिए बंद करने की बात कही गई। कर्मचारियों को सवेतन अवकाश देने और फिर शुरू होने पर बुलाने की बात कही गई थी। फैक्ट्री का यकायक बंद हो जाना यहां कार्यरत 1370 कर्मचारियों के लिए बड़ा झटका था। इनमें नौ सौ वर्कर थे। चार सौ सुपरवाइजर और 70 मैनेजमेंट का स्टाफ था। सबके सब एक झटके में सड़क पर आ चुके थे। इसके बाद कर्मचारियों ने आंदोलन शुरू कर दिया। कर्मचारी यूनियनें सक्रिय हुई। खूब आंदोलन चला लेकिन फैक्ट्री की मशीनें ऐसी बंद हुई कि 14 साल बाद भी शुरू न हो सकी हैं।
भुखमरी और तंगी, त्रासद कहानी
रबर फैक्ट्री जब चलती थी तो इसमें कार्यरत 1370 कर्मचारी अच्छा वेतन पाते थे। उनके लिए पीएफ और अन्य समस्त प्रकार के देयकों की सुविधाएं थीं। इससे उनका परिवार अच्छा-खासा जीवन यापन कर रहा था लेकिन फैक्ट्री बंद होते ही इन कर्मचारियों के परिवार का पहिया भी थम गया। सबके सामने रोजी-रोटी का संकट गहरा गया। बच्चों की पढ़ाई, उनका भविष्य और रोटी की चिंता में कर्मचारी सकते में आ गए। फैक्ट्री में सीनियर टेक्नीशियन रहे सिंथेटिक एंड केमिकल कर्मचारी यूनियन के महामंत्री अशोक मिश्रा कहते हैं कि फैक्ट्री बंद होने के बाद भुखमरी, आर्थिक तंगी और बीमारी से लड़ते हुए लगभग चार सौ कर्मचारी समय से पहले ही मौत के शिकार हो गए। इनमें से कुछ ने आत्महत्या भी कर ली। उनके परिवार सड़क पर आने को विवश हो गए। उनके बच्चों को भी कम उम्र में मेहनत-मजदूरी करनी पड़ी और बाकी कर्मचारियों को परिवार के भरण-पोषण के लिए और काम करने पड़े।
कर्मचारियों की 75 करोड़ की देनदारी
फैक्ट्री बंद होने के बाद लंबी चली लड़ाई में 2002 में कर्मचारियों की मांग पर श्रम विभाग ने फैक्ट्री मालिकान के खिलाफ आरसी जारी कराई। इसके मुताबिक, सारे कर्मचारियों के वेतन और पीएफ आदि के भुगतान के तौर पर करीब 75 करोड़ रुपये की देनदारी है। इसे पाने की आस यह कर्मचारी आज भी लगाए हुए हैं। इसीलिए फैक्ट्री चलने या फिर फैक्ट्री की जमीन पर कोई नया काम शुरू होने की संभावनाओं पर वह उम्मीदों से भर जाते हैं।
बैंक का कर्जा और हाईकोर्ट का रिसीवर
रबर फैक्ट्री बंद करने के बाद मालिक मुंबई के किलाचंद ने फैक्ट्री पर 275 करोड़ का कर्जा और घाटा दिखाकर इसे बीमार इकाई घोषित कराने के लिए बीआइएफआर यानर बोर्ड ऑफ इंडस्ट्रीयल एंड फाइनेंसियल रीकंस्ट्रक्शन में अपील की लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। उसके खिलाफ मालिकान ने आइएएफआर में वाद दायर किया, जो अभी भी विचाराधीन बताया जाता है। वहीं, आइसीआइसीआइ और कुछ अन्य बैंकों ने फैक्ट्री पर दिए कर्ज की देनदारी के लिए मुंबई हाईकोर्ट की शरण ली थी। इस पर हाईकोर्ट ने फैक्ट्री पर रिसीवर नियुक्त कर दिया। यह रिसीवर अभी भी बरकरार है।
संपत्ति हुई खुर्द-बुर्द
फैक्ट्री पर रिसीवर बैठने के बाद बैंक ने यहां की संपत्ति अपने कब्जे में लेकर सिक्योरिटी लगा दी लेकिन इस सिक्योरिटी के बावजूद भी यहां की सारी मशीनों के पुर्जे तथा स्क्रैप का अन्य सारा सामान चोरी हो गया। कर्मचारियों ने इसके खिलाफ समय-समय पर आवाज भी उठाई लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। रिसीवर ने आकर जांच की तो सामान गायब मिला था।
इतिहास: 1962 में शुरू हुई थी
फतेहगंज पश्चिमी में इस रबर फैक्ट्री की शुरुआत 1962 में मुंबई के सेठ तुलसीदास किलाचंद ने की थी। 1270 एकड़ भूमि पर यह फैक्ट्री अमेरिका में चल रही रबर फैक्ट्री का एक प्लांट शिफ्ट करके लगाई गई थी। वहां लूमस कंपनी इसे चलाती थी लेकिन उससे प्लांट किलाचंद परिवार ने खरीदा था। किलाचंद ने कई शेयर धारकों को जोड़कर इसकी शुरुआत की थी। चूंकि तुलसीदास का शेयर सबसे ज्यादा था इसलिए उनका इस पर होल्ड था। फैक्ट्री जब बंद हुई थी तब इसका टर्न ओवर लगभग 200 करोड़ था और कर्मचारियों के वेतन पर एक करोड़ रुपये प्रतिमाह खर्च होता था। मशीनें भी कई करोड़ की थीं। फैक्ट्री के बंद होने के समय सुरेश टी. किलाचंद इसके चेयरमैन थे और अजय किलाचंद इसके मैनेजिंग डायरेक्टर थे। यह फैक्ट्री रबर बनाकर एशिया भर में टायर कंपनियों को सप्लाई करती थी।
---इनकी बात---
प्रदेश सरकार रबर फैक्ट्री की जमीन पर इंडस्ट्रीयल नगरी बनाना चाहती है, यह अच्छी बात है। यदि ऐसा होता है तो निराश हो चुके कर्मचारियों को उनका हक मिल सकेगा। हमारी मांग है कि मृतक कर्मचारियों के परिवार के सदस्यों को मुआवजा और नौकरी तथा बाकी कर्मचारियों को उनके देयकों का भुगतान किया जाना चाहिए।
-अशोक मिश्रा, कर्मचारी नेता
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बहुत आश्वासन मिले हैं कि फैक्ट्री जल्द शुरू हो जाएगी या फिर इसकी जगह कुछ और बनेगा लेकिन हुआ कुछ नहीं है। प्रदेश सरकार को फिर से रबर फैक्ट्री की सुध आई है, अच्छी बात है, लेकिन देखने की जरूरत यह है कि कुछ होगा भी या नहीं। वैसे, उम्मीद कम ही है।
-चौधरी रनवीर सिंह, श्रमिक नेता
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