बाराबंकी में कभी शिया विद्वता का केंद्र रहा किंतूर इजरायल और ईरान के युद्ध को लेकर चिंतित
सैयद अहमद मुसावी हिंदी ने 1830 में औपनिवेशिक शासन से बचने के लिए भारत छोड़ दिया और ईरान के नजफ चले गए और फिर 1834 में खोमैन में बस गए। इसी कारण परिवार ...और पढ़ें

किंतूर गांव में रहने वाले खुमैनी के परिवार के लोग
जागरण संवाददाता, बाराबंकी : राजधानी लखनऊ से सिर्फ 70 किलोमीटर दूर बाराबंकी में घाघरा के किनारे बसा 13,000 की आबादी वाले गांव किंतूर में शिया मुस्लिम के सिर्फ पांच परिवार बचे हैं। उनमें से काजमी लोग सैयद अहमद मुसावी हिंदी के साथ दूर के रिश्तेदारी का दावा करते हैं। किंतूर के लोग पश्चिम एशिया में इजरायल और ईरान के युद्ध को लेकर काफी चिंतित हैं।
इनके वंशज सैयद निहाल काजमी ने बताया कि मेरे परदादा मुफ्ता मोहम्मद कुली मुसावी और सैयद अहमद मुसावी चचेरे भाई थे। अहमद की जन्मस्थली किंतूर है, लेकिन वह हमेशा के लिए ईरान के हो गए। किंतूर कभी अवध साम्राज्य में शिया विद्वता का जीवंत केंद्र था। अब यहां के लोग पश्चिम एशिया में युद्ध को लेकर चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि वर्तमान में चल रहे युद्ध में हम लोग ईरान के साथ है। अमेरिका व इजरायल बेगुनाहों का खून बहा रहे हैं।
किंतूर गांव में रहने वाले सैय्यद निहाल अहमद काज़मी, डॉ. रेहान काजमी व आदिल काजमी खुद को खुमैनी के परिवार से बताते हैं। आदिल काजमी ने बताया कि जब वे ईरान गए और खुद को किंतूर का बताया तो उन्हें सम्मान मिला। ईरान व इजराइल संघर्ष को लेकर डॉ. रेहान काजमी ने कहा कि युद्ध किसी भी देश के लिए अच्छी बात नहीं, हम किसी भी युद्ध के पक्ष में नहीं हैं। खुमैनी की विचारधारा इंसाफ और अमन को बढ़ावा देने वाली थी।
आदिल काजमी ने साफ किया कि वर्तमान ईरानी सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह खामेनेई का किंतूर से कोई संबंध नहीं है, वे केवल खुमैनी के शिष्य और उत्तराधिकारी हैं। डॉ. सैयद मोहम्मद रेहान काजमी ने कहा कि उनके कई रिश्तेदार अभी भी ईरान में हैं और गांव में शांति की दुआएं की जा रही हैं। ईरान में 1979 की क्रांति ने शाह मोहम्मद रजा पहलवी के शासन को उखाड़ फेंका था और खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी गणराज्य की स्थापना हुई थी।
अयातुल्ला रूहोल्लाह मुसावी खोमैनी के दादा सैयद अहमद मुसावी हिंदी थे। अयातुल्ला रूहोल्लाह मुसावी खोमैनी ईरान की 1979 की इस्लामी क्रांति को प्रज्वलित करने वाले और सर्वोच्च नेता बने। 19वीं सदी की शुरुआत में किंटूर में जन्मे सैयद मुसावी हिंदी ने इस साधारण से गांव से एक ऐसी विरासत बुनी जिसने पश्चिम एशिया के इतिहास को नया रूप दिया। उन्होंने 1830 में औपनिवेशिक शासन से बचने के लिए भारत छोड़ दिया और ईरान के नजफ चले गए और फिर 1834 में खोमैन में बस गए। इसी कारण परिवार का नाम खोमैन पड़ा। धार्मिक शिक्षा के लिए ईरान गए अयातुल्ला रूहोल्लाह मुसावी खोमैनी और वहीं बस गए। उनके नाम में हिंदी शब्द जुड़ा होना इस बात का प्रमाण है कि उनका दिल भारत से जुड़ा रहा।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।