अंतरराष्ट्रीय बाजार में लहराएंगे बाराबंकी के दुपट्टे
- बाराबंकी के बुनकर बनाते हैं पौने दो अरब का दुपट्टा -विदेशों में चार से पांच गुना बढ़ जाती है
- बाराबंकी के बुनकर बनाते हैं पौने दो अरब का दुपट्टा
-विदेशों में चार से पांच गुना बढ़ जाती है कीमत
- वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट में शामिल हुआ बाराबंकी का दुपट्टा
-पारंपरिक उद्योग पर छाए दुश्वारी के बादल छंटने की उम्मीद
जागरण संवाददाता, बाराबंकी : प्रदेश की योगी सरकार की नई बुनकर नीति की ओर बुनकर बहुल जिले के करीब 80 हजार परिवारों की टकटकी लग गई है। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां के पारंपरिक उद्योग पर छाए अंधेरे के छंटने की उम्मीद सभी को दिखने लगी है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से करीब एक लाख बुनकर परिवारों की जीविका का आधार इस दुपट्टे को प्रदेश सरकार वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट योजना में शामिल कर यहां के पारंपरिक गृह उद्योग को नया जीवन देने जैसा माना जा रहा है। अब तक जिले के बुनकर करीब पौने दो अरब का दुपट्टा सालभर में तैयार करते हैं। यह दुपट्टा (स्टोल) दुबई के जरिए खाड़ी व यूरोप के देशों में भी निर्यात हो रहा है। यहां एक दुपट्टे की औसतन कीमत थोक में 60 रुपये है, जो विदेशों में चार से पांच गुना बढ़ जाती है।
वर्तमान में यह है स्थिति : हथकरघा विभाग के जिला पर्यवेक्षक संजय ¨सह के मुताबिक जिले में 11 हजार 900 बुनकर हथकरघा (हैंडलूम) पर एक दिन में 71 हजार 400 पीस व 1300 पावरलूमों पर प्रतिदिन 31 हजार 200 स्टोल तैयार होते हैं। इस तरह साल में दोनों तरीके से वर्ष में दो करोड़ 72 लाख 10 हजार पीस स्टोल तैयार हो रहे हैं। औसतन 60 रुपये कीमत मान ली जाए तो सालभर में एक अरब 63 करोड़ 26 लाख का धंधा हो पा रहा है। वह भी तब जब ज्यादा मेहनत और कम मजदूरी के कारण युवा पीढ़ी यह काम नहीं कर रही है। युवाओं को इस विधा से भागते देख पुराने कारीगर भी निराश हो रहे हैं।
अस्सी हजार हाथ कर रहे काम :
पारंपरिक कुटीर उद्योग में लगे बुनकरों की मुख्य संस्था दि मेसन इंडिस्ट्रियल को-ऑपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड के जिलाध्यक्ष मुस्तकीम अंसारी का कहना है, कि 85 बुनकर समितियां जिले में हैं, जिनमें करीब पांच हजार सदस्य हैं। जबकि असंगठित क्षेत्र में पूरे जिले में बुनकर परिवारों की संख्या करीब 80 हजार है। हैंडलूम व पावरलूम पर कार्य करने के अलावा, गांठ लगाने, सूत की रंगाई व पै¨कग व ट्रांसपोर्ट आदि कार्यों में दो से ढाई लाख लोगों को रोजगार मिलता है।
यह हैं पांच उत्पाद : अरब देशों में लगने वाली प्रदर्शनियों में सिर पर बांधा जाने वाला डिजायनर रुमाल, पटका, लुंगी, बेडशीट, कुशन कवर जैसे हाथ से बने उत्पाद बरबस ही किसी का भी ध्यान खींच लेते हैं।
बदलाव से मिली पहचान : आजादी से पूर्व जिले के बुनकर अंगौछा, लुंगी व अरबी रुमाल बनाते थे। जिसकी अंतरराष्ट्रीय बाजार में धीरे-धीरे मांग घटने लगी। फैशन का दौर चला तो दो दशक पहले बड़े व्यापारियों ने बाहर से अच्छा रंगीन सूत मंगाकर बुनकरों को देना शुरू किया। अंगौछे को दुपट्टे(स्टोल)का फैशनी स्वरूप देकर मार्केट में अपनी पहचान बनाई। हैंडलूम मार्का लेबल पर ही यह देश-दुनिया में छा गया। स्टोल की मांग पर देश की स्थानीय बाजारों में भी तेजी से बढ़ी है।
बुनकरों को अच्छा सूत मिले तो बने बात : जिले के बुनकरों को सरकार यदि अच्छा सूत दे तो वह अपना स्टोल स्वयं तैयार कर सकते हैं। औसतन 60 रुपये का एक स्टोल बनाने पर 10 रुपये बुनकर को मजदूरी मिलती है। बुनकरों को सीधे सरकारी आर्थिक सहायता के साथ ही विपणन की व्यवस्था भी की जानी चाहिए, तभी बुनकर परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। मुस्तकीम अंसारी का कहना है कि बुनकरों के बनाए गए स्टोल, अंगौछा व लुंगी आदि को जीएसटी से छूट भी मिलनी चाहिए।
सरकार से है ब्रां¨डग की दरकार : अपनी कसीदाकारी के लिए प्रदेश ही नहीं देश की बाजार में नायाब उत्पाद बनाने के लिए प्रसिद्ध होने वाले कारीगर अब बदले दौर में ब्रां¨डग न कर पाने की सजा पा रहे हैं। समुचित प्रचार-प्रसार के संसाधन न होने से कारीगर अपनी मेहनत भी नहीं निकाल पा रहे हैं। उत्पादों के लिए बाजार और व्यापार नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में हथकरघा से जुड़े लोग अपने उत्पादों की गुणवत्ता के अनुसार ब्रां¨डग चाहते हैं।
सरकार ने बनाया डाइंग प्लांट : प्रदेश सरकार ने केंद्रीय हथकरघा एवं वस्त्र मंत्रालय की सहायता से यहां वर्ष 2011 में हथकरघा डाइंग प्लांट लगाया था। जैदपुर में अत्याधुनिक तकनीक से लैस इस प्लांट में बुनकरों के कपड़ों का रंगरोगन किए जाने का काम होता है। फिलहाल यह प्लांट बीते दो साल से बंद है। उपायुक्त हथकरघा एवं वस्त्र उद्योग मनोज गर्ग ने बताया कि जल्द ही इस प्लांट को शुरू कर दिया जाएगा। साथ ही प्रशिक्षण केंद्र भी शुरू किया जा रहा है।
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