Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    तब बैल गाड़ी व इक्का से निकलता था मेला का कारवां

    By JagranEdited By:
    Updated: Sun, 14 Nov 2021 05:36 PM (IST)

    जागरण संवाददाता बलिया भृगु मुनि की पावन तपोस्थली पर उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर प्रतिवष

    Hero Image
    तब बैल गाड़ी व इक्का से निकलता था मेला का कारवां

    जागरण संवाददाता, बलिया : भृगु मुनि की पावन तपोस्थली पर उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर प्रतिवर्ष लगने वाला ददरी मेला प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। मेला का आयोजन पूर्णिमा स्नान के बाद से ही शुरू हो जाता है। मेला का जलवा उस समय कुछ ज्यादा था, जब आवागमन के साधनों की कमी थी तथा सड़कें भी कम थीं। लोग पैदल या बैलगाड़ी से अपने बच्चों के साथ मोटरी, गठरी व आटा सत्तू आदि सामान के साथ घर से चल देते थे। उस समय जनपद के दूरदराज इलाकों से आने वाली बैलगाड़ियों और लोगों का काफिला मनोरम ²श्य प्रस्तुत करता था। स्नान करने वालों का हुजूम भी एक लघु मेले का रूप धारण कर लेता था।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    ---------------------

    मुझे बचपन के वे दिन याद है जब अपनी माता के साथ जिद कर गांव से पैदल कार्तिक पूर्णिमा का स्नान करने जाते थे। गंगा भी बलिया शहर से ज्यादा दूर नहीं थी। गंगा स्नान के बाद लौटते समय ददरी मेले का भी भ्रमण करते थे। पेट्रोमैक्स हर दुकानों पर जलता था। गुड़ की जलेबी बड़े चाव से खाते थे। शाम को फिर पैदल ही घर के लिए चल देते थे और देर रात घर पहुंच जाते क्या वह जमाना था। --- बनारसी राम

    --

    बचपन से ददरी मेला देखने की जो ललक थी वह किशोरावस्था में पहुंचने के बाद पूरी हुई। बचपन में भूलने के डर से माता और पिता मुझे कभी मेला लेकर नहीं जाते थे। जब थोड़ा बड़े हुए तब उनके साथ इक्का पर चढ़कर मेला जाने लगे। उस दौर के मेला और आज के मेला में जमीन आसमान का अंतर हो गया है। मुझे मुझे याद है मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का दौर जब से शुरू हुआ तब से मैं कवि सम्मेलन को कभी नहीं छोड़ पाया। -- -डा. दीनानाथ ओझा

    ----

    मैं तो पशु मेला लगने के साथ ही अपने पिता के साथ जाता था। वह मवेशियों को लेकर मेला अपने अन्य सहयोगियों के साथ जाते थे। जिद पकड़ कर उनके साथ मेला जाता था और कई दिन तक जब तक मवेशी बिक नहीं जाते तब तक मेले में ही रूकता था। वह दो-चार पैसा देते तो जाकर के कुछ खा लेता। अब तो उम्र बढ़ने के बाद बीते कई वर्षों से मेला नहीं जा पाया हूं। अपने नाती पोतों से जब मेला की बात सुनता हूं तो पुन: एक बार मेला देखने इच्छा होती है।

    -बरमेश्वर चौधरी

    ------

    उस समय लोगों के बीच आपसी प्रेम, सौहार्द व भाईचारा था, जो स्नान के समय भी दिखता था। अब वैसा नहीं दिखता। महिलाएं पैदल ही करबो जरूर हो भृगु मुनि दर्शन आदि लोकगीतों को गाती हुई स्नान के लिए जाती थीं। जनपद के चारों तरफ से बैलगाड़ियों का काफिला शहर से कुछ दूरी पर हनुमानगंज, फेफना, शंकरपुर आदि चट्टियों पर रुकता था।

    -आचार्य भरत पांडेय

    comedy show banner
    comedy show banner