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    ऋषि व मुनियों ने भृगु की धरती पर किया था तप व शोध

    By JagranEdited By:
    Updated: Sat, 06 Nov 2021 05:53 PM (IST)

    जागरण संवाददाता बलिया सतयुग में पुष्कर क्षेत्र त्रेता में नैमिषारण्य क्षेत्र द्वापर में कुरुक्षेत्र

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    ऋषि व मुनियों ने भृगु की धरती पर किया था तप व शोध

    जागरण संवाददाता, बलिया : सतयुग में पुष्कर क्षेत्र, त्रेता में नैमिषारण्य क्षेत्र, द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में दर्दर क्षेत्र का विशेष महत्व है। इसकी पुष्टि पद्म पुराण व भविष्योत्तर पुराण भी करते हैं। काशी यदि ब्रह्मा-विष्णु व शंकर को तारती है तो दर्दर क्षेत्र में मात्र स्नान-ध्यान करने से जीव भूतात्मक रूप से तर जाता है। महर्षि भृगु की धरती गंगा-घाघरा व छोटी सरयू तमसा से घिरी है। जनपद अरण्यकाल से लेकर अब तक के मानव समाज के विकास के हर दौर की साक्षी रही है। यह भृगु, दर्दर, पराशर, वाल्मीकि, परशुराम समेत अन्य ऋषि-मनीषियों का तप व शोध-क्षेत्र रहा है जहां उन्होंने विश्व कल्याण के लिए कई यज्ञ किए तथा भारतीय सभ्यता व संस्कृति को गौरवमयी अभिव्यक्ति देने के लिए कई विश्व प्रसिद्ध रचनाओं का सृजन किया था। इसी कड़ी में महर्षि भृगु ने ज्योतिष के महान ग्रंथ भृगु संहिता की रचना की थी। भृगु संहिता सम्मेलन का हुआ था आयोजन पुराणों में वर्णित है कि महर्षि भृगु ने इसी धरती पर भृगु संहिता सम्मेलन का आयोजन किया जिसके व्यवस्थापक उनके परम शिष्य दर्दर मुनि थे। इस सम्मेलन में अठासी हजार ऋषियों व महर्षियों को आमंत्रित किया गया था। साहित्यकार शिव कुमार कौशिकेय ने बताया कि कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर महर्षियों के खुले अधिवेशन में सर्वसम्मति से भृगु संहिता को प्रशंसित, समा²त व अनुमोदित किया गया। तभी से दर्दर क्षेत्र का महत्व बढ़ गया। दर्दर क्षेत्र का महात्म्य देवमास में एक अनजाना दुर्लभ संयोग है। नारद मुनि ने तो इसे चतुर्बाह त्रियेखल क्षेत्र के नाम से पुकारा है। इसे विमुक्त क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। संगम तट पर ऋषि मुनि करते हैं कल्पवास कार्तिक पूर्णिमा के पावन दिन भृगु की तपोभूमि पर स्नान का काफी महत्व है। गंगा व तमसा के संगम पर हर साल लाखों श्रद्धालु स्नान करते हैं। भृगु व बालेश्वर मंदिर में पूजन-अर्चन का महात्म्य : पूर्वाचल व बिहार प्रांत से भी लोग इस पावन स्थल पर स्नान करने के बाद भृगु व बालेश्वर मंदिर में पूजन अर्चन करते हैं। भृगु की इस तपो भूमि पर ऋषि-महर्षि तप करने के बाद कार्तिक मास में कल्पवास भी करते हैं। यह परंपरा आज भी कायम है। यहां कार्तिक पूर्णिमा के दिन से लगने वाला ददरी मेला आज भृगु संहिता सम्मेलन का स्मृति शेष बनकर आज भी जी रहा है।

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