ऐतिहासिक धनुष यज्ञ मेले का बदल गया स्वरूप, अब सामूहिक विवाह और रामलीला का नहीं होता आयोजन
बलिया में ऐतिहासिक धनुष यज्ञ मेले का स्वरूप बदल गया है। अब यहां सामूहिक विवाह और रामलीला जैसे आयोजन नहीं होते हैं। पहले यह मेला इन आयोजनों के लिए प्रस ...और पढ़ें

जागरण संवाददाता, बैरिया (बलिया)। आधुनिकता की दौड़ में बैरिया क्षेत्र का ऐतिहासिक धनुषयज्ञ मेला अब हाईटेक स्वरूप में नजर आने लगा है। संत सुदिष्ट बाबा द्वारा सैकड़ों वर्ष पूर्व शुरू की गई अनेक परंपराएं अब धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमटती जा रही हैं। न तो अब रामलीला का मंचन होता है, न प्रवचन और न ही दहेज रहित सामूहिक विवाह जैसे आयोजन देखने को मिलते हैं।
हालांकि आज भी बिहार से सैकड़ों मेलार्थी मेला घूमने और खरीदारी के बहाने यहां पहुंचते हैं। कई लोग अपनी बेटियों के विवाह संबंध तय करने की मंशा से आते हैं। दिन भर मेला देखने के बाद शाम को अपने परिचितों के यहां ठहरने के दौरान रिश्तों की बातचीत शुरू होती है और यहीं विवाह तय हो जाते हैं।
इस तरह संत और गृहस्थ परंपरा का प्रतीक रहा धनुषयज्ञ मेला अब बदले हुए स्वरूप में नजर आ रहा है। आधुनिकता के प्रभाव से मेला परिसर और उसके आसपास की कई भावनात्मक परंपराएं भी समाप्त हो गई हैं।
बुजुर्गों के अनुसार अब मेला क्षेत्र के शिव मंदिर पर मां-बेटी और बहनों की सिसकियों की आवाजें नहीं सुनाई देतीं। मेले में पहुंचे बुजुर्ग आशुतोष तिवारी, रामधारी सिंह, ददन पांडेय और सुमेर राय ने बताया कि पहले पंचमी तिथि से ही दो सगी बहनें, जो अलग-अलग गांवों में ब्याही गई होती थीं, साल भर बाद इसी मेले में शिव मंदिर पर मिलती थीं।
उनके मिलन के दृश्य और सिसकियां सुनकर राह चलते लोग भी ठिठक जाते थे। पूरे साल के इंतजार के बाद कुछ घंटों का यह मिलन अब बीते जमाने की बात हो गया है। बुजुर्गों ने बताया कि वर्षों पहले काशी और मिथिला से रामलीला मंडलियां यहां आती थीं। पूरे क्षेत्र से लोग रामलीला देखने जुटते थे।
देशभर से संत-महात्मा संत सुदिष्ट बाबा के आमंत्रण पर मेले में आते और पखवाड़े भर प्रवास करते थे। पंचमी के दिन धनुषयज्ञ का आयोजन होता था और धनुष टूटते ही दर्जनों युवतियों के दहेज रहित विवाह बाबा की देखरेख में संपन्न कराए जाते थे। अब न तो ऐसे सामूहिक विवाह होते हैं और न ही वैसी रामलीला।
कभी रामकथा का आयोजन जरूर होता था, लेकिन कोरोना काल के बाद से वह भी बंद हो चुका है। बदलते समय के साथ धनुषयज्ञ मेला अब अपनी पुरानी सांस्कृतिक और भावनात्मक पहचान खोता नजर आ रहा है।

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