व्यापार और सामाजिक एकता का संगम है ऐतिहासिक ददरी मेला, प्राचीन काल है इसका विशेष महत्व
ददरी मेला व्यापार और सामाजिक एकता का एक ऐतिहासिक संगम है। यह प्राचीन काल से चला आ रहा है और इसका विशेष महत्व है। यह मेला व्यापार के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र है, जहां विभिन्न समुदायों के लोग एकत्रित होते हैं। यह प्राचीन परंपराओं को जीवित रखता है।

ददरी मेले में लोगों की उमड़ी भीड़।
जागरण संवाददाता, बलिया। आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, व्यवसायिक व सामाजिक एकता का संगम ददरी मेला अपने आपमें अनूठा है। इसका इतिहास बहुत ही पुराना है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर गंगा व सरयू नदी के दोआब में बसे भृगु-दर्दर क्षेत्र (महर्षि भृगु की तपोस्थली) में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर इस मेले का आयोजन होता है।
इसकी ख्याति केवल बलिया जिले तक ही सीमित नहीं, बल्कि पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों में अत्यंत प्रसिद्ध होने के साथ प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर भी है। यह मेला शहर से लगभग तीन किलोमीटर दूर लगता है जो करीब एक महीने तक चलता है। इसमें लाखों लोग भाग लेते हैं।
यहां पर पशु मेला भी लगता है, जिसमें विशेष रूप से गाय, बैल, भैंस, घोड़े, ऊंट आदि की खरीद-बिक्री होती है। इसके अलावा खिलौने, मिट्टी के बर्तन, कपड़े, मिठाइयां, झूले और अनेक लोक मनोरंजन के साधन भी उपलब्ध होते हैं। हालांकि इस बार लंबी रोग को देखते हुए पशु मेला का आयोजन नहीं किया गया है।
मेले का ऐतिहासिक महत्व
हिंदू धर्म में कार्तिक मास को बहुत पवित्र माना गया है। इस दिन लाखों श्रद्धालु स्नान और पूजा करने आते हैं और दीपदान करते हैं। धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक व सामाजिक कारणों से ही इसी अवधि में ददरी मेले का आयोजन किया जाता है। कार्तिक कृष्ण एकम् को मासपर्यन्त चलने वाले कार्तिक कल्पवास के ध्वजास्थापन से ददरी मेले का शुभारंभ होता है, जो मार्गशीष पंचमी तक चलता है।
इतिहासकारों के मुताबिक 1302 ई. में खिलजी वंश के बादशाह बख्तियार खिलजी ने अंग देश (वर्तमान बिहार) व बंग देश (वर्तमान बंगाल) के कुछ भू-भाग को काटकर बलिया नाम से राजस्व वसूली की ''महाल'' इकाई बनाई। ऐसे में मेले में आए व्यापारियों से कर वसूली की जाने लगी। मुगल शासक अकबर व औरंगजेब के शासनकाल में यहां नाचने-गाने वाली महिलाओं का जाना प्रारंभ हुआ जो लोगों का मनाेरंजन करती थीं।
29 सितंबर 1738 में यह भू-भाग ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन आ गया लेकिन उन्होंने परंपरा से छेड़छाड़ नहीं किया। 1798 ई. में जब गाजीपुर जिला बना तो बलिया महाल से यह तहसील बन गया।
ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में गाजीपुर के कलेक्टर मेले की व्यवस्था संभालने लगे। एक नवंबर 1879 को बलिया जनपद बनने के बाद यहां के जिला प्रशासन व नगर पालिका के निर्देशन में मेले का आयोजन होता चला आ रहा है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र भी यहां कर चुके हैं नाटक का प्रदर्शन
ददरी मेले का प्रतिष्ठित सांस्कृतिक मंच नृत्य, गायन, नाटक, कवि सम्मेलन, मुशायरा आदि लोकरंजन की विधा में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस मंच पर 1884 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाटक ''सत्य हरिश्चंद्र'' की प्रस्तुति की थी। इन्हीं के सम्मान में इस मंच का नाम भारतेन्दु मंच रखा गया। इस मंच पर आज भी साहित्य क्षेत्र के मूर्धन्य कवि पधारते हैं जिन्हें सुनने के लिए दूरे-दूर से लोग आते हैं।
विगत दो वर्षों से इस मंच पर ''ददरी महोत्सव'' के नाम से कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। इस बार मेले में पूर्वी छोर पर इस मंच को स्थान दिया गया है। इसके बाद ही अन्य दुकानें व पार्किंग स्थल को आवंटित किया गया। इस मेले में होने वाली चेतक प्रतियोगिता (घुड़दौड़), बलिया केशरी दंगल (कुश्ती) समेत अन्य प्रतियोगिताएं उल्लेखनीय है।
मीना बाजार आज भी कायम
ददरी में लगने वाले मीना बाजार की परंपरा को 1707 ई. में मुगल शासकों ने ही आरंभ किया था। इस मेले में गुजरात, गंधार, ईरान, कलिंग (ओडिशा), बंगाल, बिहार व पंजाब तक के व्यापारी सामानों की खरीद बिक्री करने आते थे। ढाका (बांग्लादेश) का मलमल कपड़ा, ओडिशा के जूट, ईरान के घोड़े-खच्चर की खूब बिक्री होती थी। आज भी यह परंपरा कायम है और मीना बाजार लगता है।
ददरी का चटनिया मेला
ददरी के चटनिया मेले का भी काफी महत्व है। पूर्वकाल में यातायात के साधन का अभाव था, इसलिए लोग अपने घरों से जानवरों को लेकर खाने-पीने के सामान के साथ कई दिन पहले ही निकल जाते थे और जगह-जगह रास्ते में ठहराव करते।
ऐसे में रास्ते में कई जगह छोटे-छोटे मेले लगने लगे जिन्हें चटनिया मेला कहा गया। यातायात के साधन होने के बाद भी यह परंपरा आज भी कायम है। करनई का चटनिया मेला आज भी बलिया-सिकंदरपुर राजमार्ग पर लगता है।

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