निष्काम व निर्विकार हैं महादेव शिव
सिकन्दरपुर (बलिया): शिवरात्रि आत्मा को उर्ध्वगामी करने के प्रतीक के रूप में मनायी जाती है। रात्रि का अंधकार मोह का प्रतीक है। जगत के प्रति आसक्ति के घोर अंधकार से आत्मा को जगाना ही शिवरात्रि का प्रतीकात्मक पर्व है। अर्थात, हम अपने हृदय से काम और विकार को दूर करके निष्काम एवं निर्विकार बनने की दिशा में आगे बढे, शिवरात्रि हमें यही संदेश देती है। भारतीय दर्शन में जीवन का अंतिम उद्देश्य शिवत्व की प्राप्ति है। शिवत्व अर्थात कल्याण की भावना। जगत के कल्याण की भावना और स्वयं कामनाहीन होना, यही शिवत्व है। गीता में जिस निष्काम कर्म की बात कही गयी है वह शिवत्व की ओर उन्मुख होना ही है। इसी लिए भगवान शंकर को शिव भी कहा गया है। निष्काम अर्थात जिसके हृदय में काम की भावना उत्पन्न ही न हो। काम जिस के मन में विकार की भावना उत्पन्न न कर सके। ऐसी निष्काम और निर्विकार आत्मा ही शिव है। विष्णु भी विकार ग्रस्त हो जाते हैं, ब्रह्मा भी विकार ग्रस्त हो जाते हैं किन्तु शंकर हमेशा निर्विकार रहते हैं। इसीलिए वे देवाधिदेव हैं, महादेव हैं।। भौतिक प्रतीक के रूप में वे संसार की सबसे ऊंची चोटी पर विराजमान हैं जो उनकी महानता और सर्वोच्चता को व्यक्त करता है। उसका नाम गौरी शंकर है। शिवत्व प्राप्ति अर्थात निष्काम और निर्विकार आत्मा का आभामंडल श्वेत रंग का होता है। इसीलिए शिव का स्थान हिमालय का वह सर्वोच्च शिखर है जो बर्फ की श्वेत धवल चादर से सदैव ढका रहता है अर्थात उनका आसन श्वेत बर्फ है। उनके मस्तक पर श्वेत चन्द्रमा विराजमान है। जटाओं में गंगा की श्वेत जलधारा विराजमान है। यानी सब कुछ श्वेत। गर्दन में सर्प को काम का प्रतीक माना गया है। शंकर के गले में सर्प लिपटा रहता है, वह शिव को डंस नहीं सकता अर्थात वह भी शिव के सामने नतमस्तक है। उनके हृदय में काम उत्पन्न नहीं हो सकता। पौराणिकों ने कामदेव द्वारा शंकर को विकार ग्रस्त करने के प्रयत्न पर भस्म होते दिखाया है। अर्थात निर्विकार चेतनशील प्राणी ही उच्चता के सर्वोच्च शिखर को छू सकता है। यही शिवत्व बताता है। शिव योगियों के इसीलिए आदर्श है कि योगी आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाते हैं। यानी वे काया के निम्न भाग में स्थित कुण्डलिनी को जागृत कर सप्तचक्र वेध कर ब्रह्मरंध तक पहुंचाते हैं जो काया की उच्चतम स्थिति है जहां आत्मा व परमात्मा का मिलन होता है।
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