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    महर्षि भृगु के प्रपौत्र हैं ब्रह्माज्ञानी ऋषि परशुराम

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    Updated: Wed, 16 Nov 2011 04:10 PM (IST)

    बलिया: धर्म के प्रयोजनों को पूरा करने और राजतंत्र पर प्रभावी नियंत्रण के लिए शास्त्र और शस्त्र दोनों की महत्ता प्रमाणित करने वाले परशुराम महर्षि भृगु के प्रपौत्र हैं। घाघरा नदी का दक्षिणी तट रहा परशुराम जी का साधना स्थल, भृगुक्षेत्र के धनुष-परशुधारी ब्रह्माज्ञानी ऋषि की जयंती पर उक्त जानकारी अध्यात्म तत्ववेत्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय ने दी। उन्होंने बताया कि पुराणों के अनुसार महर्षि भृगु के पुत्र ऋचीक जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, उनके पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए, जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ। परशुराम के दादा ऋचीक अपनी ससुराल गाधि पुर में रहते थे। इनके पिता जमदग्नि और गाधि पुत्र विश्वमित्र का जन्म एक साथ गाजीपुर में हुआ था। परशुराम का जन्म उनके पिता के नाना राजा गाधि द्वारा दिये गये गंगा पार जमानिया में हुआ। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि से तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। श्री कौशिकेय बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भृगुवंशी और हैहयवंशी इन दोनों का ही आर्यावर्त में प्रभाव था। हैहयराज सहस्त्रार्जुन परशुराम के सगे मौसा थे। एक बार जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्‍‌नी रेणुका को गंधर्वराज चित्ररथ के साथ विहार करते देख लिया तब अपने पुत्र परशुराम को आज्ञा देकर उनसे परशुराम की मां रेणुका का सिर कटवा दिया। इस घटना से दु:खी उनकी मौसी ने अपने पति सहस्त्रार्जुन से जमदग्नि का आश्रम जलवा दिया। दोनों वंशों की यह रार दो पीढि़यों तक चली। परशुराम हैहयवंशी राजपुत्रों को अपने परशु से काटते रहे। कौशिकेय बताते हैं कि परशुराम सारण से दोहरी घाट तक घाघरा के दक्षिण तट पर विचरण करते रहते थे। बलिया जिले के मनियर में उनका बसेरा था। उनके ननिहाल अयोध्या के राजा दशरथ जब अपने चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का विवाह करके जनकपुर से लौट रहे थे, तब वर्तमान दोहरी घाट में परशुराम ने अपने गुरु भगवान शिव के धनुष भंग करने का आरोप लगाकर युद्ध के लिए रोका तब भगवान राम ने उन्हें रघुकुल का पूज्य पुरुष बताते हुए समझाया। इस पर परशुराम शस्त्र त्याग कर हिमालय चले गये। हिमालय का नंदन कानन उन्हीं का लगाया सुरम्य उपवन है जिसे 1931 ई. में खोजा गया। कहते हैं लंका में मूर्छित पड़े लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी इसी उपवन से हनुमान ले गये थे।

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