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दिल पे कोई बोझ न रखिए, जिंदगी जंग है..

बदायूं : डॉ.उर्मिलेश शंखधार ¨हदी साहित्य का चिरपरिचित नाम है। कस्बा इस्लामनगर में छह जुलाई 1951 में

By JagranEdited By: Published: Fri, 06 Jul 2018 11:16 AM (IST)Updated: Fri, 06 Jul 2018 11:16 AM (IST)
दिल पे कोई बोझ न रखिए, जिंदगी जंग है..

बदायूं : डॉ.उर्मिलेश शंखधार ¨हदी साहित्य का चिरपरिचित नाम है। कस्बा इस्लामनगर में छह जुलाई 1951 में जन्मे डॉ.उर्मिलेश ¨हदी गीतों के पर्यायवाची हैं। सामाजिक विसंगतियों, रिश्तों, देश भक्ति, प्रेम, सौहार्द, समरसता, भक्ति, जाग्रति, एकता, मानवीय संवेदना जीवन दर्शन आदिं पहलुओं को उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है।

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¨हदी काव्य मंचों पर अपने व्यक्तित्व और ओजपूर्ण रचनाओं से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर ¨हदी की सेवा करने वाले डॉ.उर्मिलेश बदायूं नेहरू मेमोरियल शिव नारायण दास महाविद्यालय में ¨हदी के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष रहे। उनकी प्रसिद्ध कविता- चाहें जिंदा रहें चाहें मर जाएं हम, गाएंगे गाएंगे हम वंदे मातरम। आज भी पूरे देश के काव्यप्रेमियों की जुबान पर है। बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिए, जिंदगी जंग है इस जंग को जारी रखिए। सकारात्मकता से लबरे•ा डॉ.उर्मिलेश की इस ़ग•ाल ने लोगों को जीने का तरी़का सिखलाया है। डॉ. उर्मिलेश काव्य की हर विधा में सामान रूप से पारंगत थे। दोहे, ़ग•ाल, मुक्तक, गीत, नवगीत इत्यादि। सैकड़ों सम्मानों से सम्मानित डॉ.उर्मिलेश को मरणोपरांत उप्र सरकार ने यश भारती सम्मान से सम्मानित किया गया। उनका विस्तृत साहित्य रहा है जिसमे मुख्य रूप से गीत, ग़•ाल, कविता, मुक्तक विधाओं में प्रकाशित प्रमुख संग्रह पहचान और परख, सोत नदी बहती है। ¨चरजीव हैं हम, बाढ़ में डूबी नदी सभी गीत-संग्रह, धुआं चीरते हुए, जागरण की देहरी पर, बिम्ब कुछ उभरते हैं दोनों नवगीत-संग्रह, घर बुनते अक्षर, फ़ैसला वो भी ग़लत था, धूप निकलेगी, आइनें आह भरते हैं सभी ग़•ाल-संग्रह, गंधो की जागीर, वरदानों की पाण्डुलिपि दोहा-संग्रह, अक्षत युगमान के कविता संग्रह एवं एक ऑडियो सी डी ¨•ादगी से जंग है बदायूं क्लब एवं बदायूं महोत्सव जैसी संस्थाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में डॉ.उर्मिलेश का योगदान अप्रतिम है। आज भी उनकी कविताएं जनमानस के मन मस्तिक में गूंजती है। हंसी बच्चो की, मां का प्यार और मुस्कान बीबी की, तू घर से जब चले तो दवाएं साथ रख लेना। तू जला वो भी ़गलत था, मैं जला ये भी ़गलत, हौसला वो भी ़गलत था, हौसला ये भी ़गलत। आज भले ही डॉ.उर्मिलेश इस संसार में नहीं है लेकिन उनकी स्मृति बदायूं वासियों, साहित्यप्रेमियों के मन में सदैव रहेगी।


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