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    Ram Mandir Andolan History: 6 दिसंबर 1992 से पहले इन तारीखों पर होता रहा विवादित ढांचा गिराने का प्रयास

    Updated: Tue, 26 Dec 2023 06:06 PM (IST)

    1912 और 1934 ई. में भी विवादित ढांचे को हटाने का प्रयास किया गया। यद्यपि यह प्रयास फलीभूत नहीं हो सका और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस तरह का प्रयास करने वाले रामभक्तों के प्रति कठोरता बरती। अनेक स्थानीय साधु-संतों एवं रामभक्तों को इस मामले में कारावास भुगतना पड़ा। 1934 की तोड़-फोड़ से मस्जिद को हुई क्षति के लिए अंग्रेजों ने हिंदुओं से कर भी वसूले।

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    6 दिसंबर 1992 से पहले इन तारीखों पर होता रहा विवादित ढांचा गिराने का प्रयास

    रमाशरण अवस्थी, अयोध्या। छह दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने का प्रयास पहली बार नहीं था। इससे पूर्व भी रामजन्मभूमि पर बने ढांचे को गिराए जाने का प्रयास होता रहा। आगे बढ़ने से पूर्व अतीत के इस समीकरण को जानना जरूरी है।

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    एक मार्च 1528 ई. को रामजन्मभूमि पर बना मंदिर का ढांचा गिराए जाने के बाद आनन-फानन में ध्वंस मंदिर को ही मस्जिद का आकार दिया गया। नींव और दीवारें वही रहीं, बस मंदिर के शिखर के स्थानों पर मस्जिद के गुंबद बनवा दिए गए।

    रामभक्त उस स्थल को लेने के प्रति अडिग थे ही, जहां राम जन्मे थे, किंतु इससे पूर्व वह मंदिर पर बने मस्जिद का ढांचा तोड़ने पर आमादा थे। उनके लिए राम मंदिर के प्रति यह जघन्यता असह्य थी। मंदिर तोड़े जाने के बाद से ही न केवल एवंस के प्रतिकार की मशाल प्रज्ज्वलित हुई, बल्कि मस्जिद का ढांचा हटाए जाने का प्रयास होता रहा।

    रामजन्मभूमि मुक्ति के आरंभिक संघर्ष में सतत सामरिक अभियान और प्राय: होती रहने वाली झड़पों के संकेत मिलते हैं। तब के विवरण ढांचें के संदर्भ में मौन हैं। राम मंदिर की दावेदारी से लंबे समय तक जुड़े रहे अधिवक्ता तरुणजीत वर्मा कहते हैं, मार्च 1528 में मंदिर का ढांचा तोड़े जाने के बावजूद लंबे समय तक रामलला की प्रतिमा स्थापित थी।

    कुछ ऐसे भी दौर थे, रामलला की प्रतिमा को उस स्थल से वंचित कर वहां मस्जिद होने का दावा किया जाता रहा। यह सही है कि रामभक्तों का अधिकार वहां निरापद नहीं था, फिर भी प्रबल प्रतिरोध के साथ वह रामजन्मभूमि वापस प्राप्त करने के साथ उस पर बने ढांचे को भी क्षति पहुंचाने का प्रयास करते रहे। ताकि मस्जिद का ढांचा नष्ट कर इस रामजन्मभूमि का विवाद सदा-सदा के लिए खत्म हो जाय।

    ‘तिथियां जो इतिहास बन गईं’ के लेखक रघुनंदनप्रसाद शर्मा गजेटियर का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं, ‘1855 में जन्मस्थान के द्वार पर दूसरे पक्ष के 75 लोगों की बलि लेने वाले युद्ध के माध्यम से हिंदुओं ने तीन गुंबज वाले निर्माण सहित प्रांगण पर पुन: आधिपत्य स्थापित कर लिया।

    युद्ध में प्राण गंवाने वाले लोगों की पास ही कब्र बनाई गई और इस कब्रगाह को शहीदाना के नाम से जाना जाता है।’ रामजन्मभूमि के समीप शहीदाना नाम की कब्रगाह तो नहीं, किंतु इस नाम के मुहल्ले का जिक्र जरूर मिलता है।

    तथापि इस नाम से गजेटियर में उल्लिखित 1855 की सच्चाई समीकृत होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। 1912 और 1934 ई. में भी आस्था के इस केंद्र पर बना ढांचा रामभक्तों की ओर से हटाने का प्रयास किया गया। यद्यपि यह प्रयास फलीभूत नहीं हो सका और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस तरह का प्रयास करने वाले रामभक्तों के प्रति कठोरता बरती।

    अनेक स्थानीय साधु-संतों एवं रामभक्तों को इस मामले में कारावास भुगतना पड़ा। 1934 की तोड़-फोड़ से मस्जिद को हुई क्षति ठीक कराने के लिए अंग्रेज सरकार ने स्थानीय हिंदुओं से कर भी वसूले गए। रामजन्मभूमि के मुक्ति के संघर्ष का यही वह मोड़ था, जब रामचंद्रदास परमहंस की भूमिका सामने आई। परमहंस कालांतर में मंदिर आंदोलन के प्रेरक-पर्याय बनकर स्थापित हुए।

    यद्यपि तब किशोरवय के परमहंस रामजन्मभूमि पर स्थापित विग्रह के दर्शनार्थी थे और लंबी न्यायिक लड़ाई में वह इस भूमिका की गवाही देते रहे। उस समय के अन्य अनेक स्थानीय संत भी 1934 के अभियान से ताल्लुक के लिए जाने जाते हैं। 22-23 दिसंबर 1949 तक परमहंस परिपूर्ण युवा हो चले थे और उन्होंने इस रात रामजन्मभूमि पर रामलला के प्राकट्य प्रसंग में प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया।

    रामलला के प्राकट्य प्रसंग को शिरोधार्य करने वालों में अग्रणी रहे बाबा अभिरामदास के शिष्य एवं रामजन्मभूमि के लिए न्यायिक लड़ाई लड़ते रहे महंत धर्मदास कहते हैं, असली साल तो उस स्थान का था, जहां रामलला का प्राकट्य हुआ था। यद्यपि उस ढांचे के प्रति आक्रोश जरूर था, जिसे मंदिर गिराकर खड़ा किया गया था।

    मर्मज्ञ पत्रकार के रूप में पूरे देश को मथने वाले इस विवाद को करीब से देखते रहे स्थानीय साकेत महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डा. वीएन अरोड़ा के अनुसार छह दिसंबर 1992 की घटना वस्तुत: आक्रोश और अहमति की इसी श्रृंखला का प्रस्फुटन थी और इसी के चलते वह बहुत विस्फोटक भी था।

    ध्वंस के प्रतिकार का ध्वंस करने में न केवल लाखों की भीड़ शामिल हुई, बल्कि किसी विशेष तैयारी के उसे कुछ ही घंटों में भूमिसात कर दिया गया।