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    Premchand Birth Anniversary : मुंशी प्रेमचंद की रचनात्मक ऊर्जा को प्रयाग में लगे थे पंख Prayagraj News

    By Brijesh SrivastavaEdited By:
    Updated: Fri, 31 Jul 2020 06:35 PM (IST)

    प्रयागराज प्रेमचंद के कई अहम फैसलों व रचनाओं का गवाह है। सबसे अहम है हंस का प्रकाशन व सरस्वती प्रेस की नींव रखना। इन प्रकाशनों के जरिए उन्‍होंने हिंदी साहित्य को नया आयाम दिया।

    Premchand Birth Anniversary : मुंशी प्रेमचंद की रचनात्मक ऊर्जा को प्रयाग में लगे थे पंख Prayagraj News

    प्रयागराज, जेएनएन। साहित्य के शिखर पुरुष मुंशी प्रेमचंद की कहानियां आज की प्रासंगिक हैं। दशकों पहले उन्होंने जिन मुद्दों पर कलम चलाई थी, उसकी अनुभूति आज की पीढ़ी कर रही है। प्रेमचंद प्रयागराज व वाराणसी को साहित्य की दो आंखें मानते थे। उनकी रचनात्मक ऊर्जा का केंद्र था प्रयागराज। यही कारण है कि वह हर दो-तीन माह में यहां आते थे।

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    प्रयागराज प्रेमचंद्र के अहम फैसलों व रचनाओं का गवाह है

    यह शहर उनके कई अहम फैसलों व रचनाओं का गवाह है, उसमें सबसे अहम है हंस का प्रकाशन व सरस्वती प्रेस की नींव रखना। इन प्रकाशनों के जरिए प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य को नया आयाम दिया। चर्चित कहानी 'ईदगाह व गोदान' का अधिकतर भाग यहीं लिखा। वहीं, 'नमक का दारोगा', 'कफन' का पहला ड्राफ्ट प्रयागराज में पूरा किया।

    इन विभूतियों से प्रेमचंद के पारिवारिक रिश्ते थे

    छायावादी आलोचक गंगा प्रसाद पांडेय, महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमार चौहान, भारती भंडार के वाचस्पति पाठक, उमा राव, बालकृष्ण राव से प्रेमचंद के पारिवारिक रिश्ते थे। प्रेमचंद बंगाली लेखक क्षितींद्र मोहन मित्र के घर व महादेवी वर्मा के विद्यापीठ में रुकते थे। चीनी धर्मशाला जीरो रोड में रुककर उन्होंने गोदान,  कर्मभूमि का कुछ अंश लिखा था। 

    ...और माहौल हो गया गमगीन

    मुंशी प्रेमचंद ने 'ईदगाह' कहानी का पाठ प्रयाग संगीत समिति में किया था। हजारी प्रसाद द्विवेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृष्ण राव सहित तमाम रचनाकार मौजूद थे। प्रेमचंद के कहानी पाठ खत्म करने पर माहौल गमगीन हो गया था। प्रेमचंद से एक बार किसी लेखक ने पूछा कि लिखने में आप कैसा कागज व कलम इस्तेमाल करते हैं? तब प्रेमचंद ने हृदयस्पर्शी उत्तर दिया, बोले, भाई कागज ऐसा इस्तेमाल करते हैं जिसमें पहले से कुछ न लिखा हो, और कलम जिसकी निभ न टूटी हो।'

    यादों में हंस व सरस्वती प्रकाशन

    ङ्क्षहदी साहित्य को संरक्षित करने व उसके प्रचार-प्रसार के लिए प्रेमचंद ने हंस प्रकाशन व सरस्वती प्रेस की स्थापना कराई थी। यहां से हजारों पुस्तकें प्रकाशित भी हुई लेकिन मौजूदा समय दोनों प्रकाशन बंद हो गए हैं। प्रेमचंद के छोटे बेटे अमृत राय 'धूप छांह' बंगले से हंस प्रकाशन को संचालित करते थे। प्रेमचंद की कहानी 'मानसरोवर' को आठ खंडों में हंस प्रकाशन ने छापा था। कलम का सिपाही, गोदान, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, सेवा सदन आदि कहानियां भी इसी प्रकाशन में छपी थी। प्रयागराज में हिंदी साहित्य के क्षरण का असर हंस प्रकाशन व सरस्वती प्रेस पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य के दिल्ली की ओर रुख करने पर हंस प्रकाशन 1982-83 में वहां चला गया लेकिन कुछ सालों बाद वहां भी बंद हो गया।

    'नई कहानी' ने नए रचनाकारों को दिलाई पहचान

    प्रेमचंद के बड़े बेटे श्रीपति राय अपने अशोक नगर स्थित बंगले से सरस्वती प्रेस का संचालन करते थे। सुभाष चौराहा सिविल लाइंस में उसका दूसरा दफ्तर बनाया गया था। सरस्वती प्रेस से 'नई कहानी' नामक पत्रिका निकाली गई, जिसमें नए रचनाकारों की कहानियां छपती थी। अमरकांत, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, मार्कंडेय, भैरव प्रसाद गुप्त, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव सहित अनेक रचनाकारों को इसी के जरिए लोकप्रियता हासिल हुई। श्रीपति के बाद उनके बेटे अतुल राय ने प्रकाशन का जिम्मा कई सालों तक सफलता पूर्वक संभाला था।

    महादेवी के प्रयास से हुआ विवाह

    मुंशी प्रेमचंद के बेटे अमृत राय लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान की बेटी सुधा चौहान से शादी करना चाहते थे। हालांकि वह अपने पिता से यह बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। उन्होंने महादेवी से सुधा से शादी करने की इच्छा प्रकट की। फिर महादेवी ने यह बात प्रेमचंद को बताई और बाद में दोनों का विवाह हो गया।

    अंग्रेजी से किया था स्नातक

    मुंशी प्रेमचंद हिंदी के कथाकार थे लेकिन कम लोग जानते हैं कि स्नातक में प्रेमचंद ने हिंदी विषय नहीं लिया था। अंग्रेजी साहित्य, फारसी व इतिहास से उन्होंने स्नातक किया था और सेकेंड डिवीजन में पास हुए थे। उन्हेंं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री प्रदान की गई थी। प्रेमचंद की डिग्री संजोने वाले इविवि में मध्य कालीन आधुनिक इतिहास विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं कि 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना होने के बाद हाईस्कूल, इंटर, स्नातक व परास्नातक की पढ़ाई यहीं से संचालित होती थी।

    और इविवि का अधिकार क्षेत्र कम होता गया

    उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान व  महाराष्ट्र का विधर्व के क्षेत्र में स्थित समस्त विद्यालयों व डिग्री कालेजों के छात्र-छात्राओं को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंकपत्र व डिग्री मिलती थी। इसी के तहत प्रेम चंद को इविवि ने डिग्री दी थी। फिर 1921 के एक्ट बनने के बाद उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद बना और बोर्ड ने हाईस्कूल/इंटर तक की पढ़ाई का जिम्मा लिया। जबकि इविवि को आवासीय दर्जा मिला और यहां से उच्च शिक्षा दी जाती थी लेकिन नई व्यवस्था 1925-26 से लागू हो पाई। इसके साथ हर क्षेत्र में नए विश्वविद्यालय बनने लगे और इविवि का अधिकार क्षेत्र कम होता गया।

    प्रेमचंद के वंशजों को गर्व है

    वैसे तो हर साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद से जुड़ाव महसूस करता है लेकिन उनके वंशज खुद को गौरवांवित महसूस करते हैं। प्रेमचंद के बड़े बेटे श्रीपति राय की बेटी सारा राय कहती हैं कि मैं अपने बाबा प्रेमचंद से कभी मिली नहीं। मेरे जन्म से पहले उनका निधन हो गया था। उनकी रचनाओं से उन्हेंं जानने व समझने का मौका मिला। उन्हेंं पढ़कर पता चला कि वह बहुत दूरदर्शी थे। सामाजिक बुराइयों को उन्होंने बहुत पहले भांप लिया था और उसी पर अपनी लेखनी चलाई थी। उन्होंने दशकों पहले जो लिखा था वह आज भी सच साबित हो रहा है। ऐसी प्रतिभा कम लेखकों में होती है।

    -संयुक्ता राय, पौत्री मुंशी प्रेमचंद

    तब महादेवी ने जाना कि प्रेमचंद कविता भी पढ़ते हैं...

    मुंशी प्रेमचंद से जुड़े तमाम रोचक संस्मरण जुड़े हैं। वैसा ही एक संस्मरण महादेवी वर्मा से जुड़ा है। जो उन्होंने प्रख्यात कवि यश मालवीय से अपने जीवनकाल में साझा किया था। महादेवी ने बताया था कि मैं आठवीं कक्षा की विद्यार्थी थी। मेरी 'दीपक' शीर्षक एक कविता 'चांद' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंदजी ने तुरंत मुझे कुछ पंक्तियों में अपना आशीर्वाद भेजा। तब मुझे यह ज्ञात नहीं था कि कहानी और उपन्यास लिखने वाले कविता भी पढ़ते हैं। मेरे लिए ऐसे ख्यातनामा कथाकार का पत्र जो मेरी कविता की विशेषता व्यक्त करता था, मुझे आशीर्वाद देता था, बधाई देता था, बहुत दिनों तक मेरे कौतुहल मिश्रित गर्व का कारण बना रहा। इसके बाद मैं लेखन को और बेहतर करना शुरू कर दिया। कुछ सालों बाद लेखन को बढ़ाया तो प्रेमचंद जी से मिलने का सिलसिला ज्यादा हो गया।  मैं प्रयाग महिला विद्यापीठ विद्यालय की प्रधानाचार्य होने के नाते वहीं के आवासीय परिसर में रहती थी। प्रेमचंद जी भी वहां आकर रुकते थे।

    देखा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है

    विद्यापीठ की भी एक कहानी है। पहली बार प्रेमचंद जी विद्यालय आए तो मेरी भक्तिन (चतुर्थ श्रेणी महिला कर्मी) उनसे मिली। वह प्रेमचंद जी की वेशभूषा देखकर उन्हेंं अपने समान ग्रामीण व अनपढ़ समझ लिया। सगर्व उनसे बोली, गुरुजी (मैं यानी महादेवी) काम कर रही हैं। कुछ देर बाद मिलेंगी। यह सुनकर प्रेमचंद जी ने अट्टहास के साथ बोले, 'तुम तो खाली हो। घड़ी-दो घड़ी बैठकर बात करो'। कुछ समय के उपरांत मैं किसी कार्यवश बाहर आई तो देखा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है। विद्यापीठ के चपरासी, चौकीदार, भक्तिन के नेतृत्व में उनके चारों ओर बैठकर लोक-चर्चा में लीन हैं। प्रेमचंदजी के व्यक्तित्व में एक सहजता, संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी, जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं होती।

    प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले

    जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया था, उस समय हिंदी कथा-साहित्य-जासूसी और तिलस्मी कौतुहली जग में ही सीमित था। उसी बाल-सुलभ कौतुहल में प्रेमचंद व्यापक धरातल पर ले आये थे। उन्होंने मनुष्य की साधारण, हल-बैल की कथा, खेत-खलिहान, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा को आत्मीयता से प्रस्तुत किया था। प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की। पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी। संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे। वह उन्हेंं छोड़ते चले गये। ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है। दर्शन, साहित्य, जीवन, राष्ट्र, साम्प्रदायिक एकता, सभी विषयों पर उन्होंने विचार किया था। इस प्रकार उनका जीवन व साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी...।

    मित्र की सलाह पर धनपत राय बने प्रेमचंद

    मुंशी प्रेमचंद का लेखन जितना आत्मीय था, उनका जीवन उतना ही उतार चढ़ाव भरा रहा। जिस मुंशी प्रेमचंद नाम से प्रसिद्ध हुए, वह नाम उन्हेंं कई पड़ाव व रोचक घटनाओं के बाद मिला। मुंशी प्रेमचंद की मां आनंदी देवी व पिता मुंशी अजायब राय ने उनका नाम धनपत राय रखा था। अजायब राय लमही डाकखाना में डाक मुंशी थे। जबकि उनके (प्रेमचंद के) ताऊ ने उन्हेंं नवाब राय नाम दिया था। प्रेमचंद ने गोरखपुर की रावत पाठशाला से 10वीं तक अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण किया।

    चुनार में स्थित मिशन स्कूल में 18 रुपये मासिक पर शिक्षक हो गए

    वह 1899 में द्वितीय श्रेणी में एंट्रेंस (हाईस्कूल) में उत्तीर्ण हुए। फिर 1900 में चुनार में स्थित मिशन स्कूल में 18 रुपये मासिक पर शिक्षक हो गए। यह नौकरी बहुत दिनों तक नहीं रही। इसे छोड़कर दो जुलाई 1900 में बहराइच के सरकारी स्कूल में शिक्षण कार्य प्रारंभ किया। फिर छोड़कर सब डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए थे। इसके तहत प्रतापगढ़ की आरा रियासत में काम किया। फिर कानपुर के एक मारवाड़ी कॉलेज में शिक्षक बन गए। प्रबंधन से विवाद होने पर उसे भी छोड़ दिया। इसके बाद हमीरपुर आ गए। 

    साहित्यकार अनुपम परिहार कहते हैं

    साहित्यकार अनुपम परिहार बताते हैं कि हमीरपुर में 1909-10 में प्रेमचंद ने उर्दू में पांच कहानियों की संग्रह च्सोजे वतन' प्रकाशित कराया। प्रेमचंद ने उसकी सात सौ प्रतियां छपवाकर खुद बंटवाया था। कहानियों के जरिए उन्होंने भारतीय नवयुवकों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया था। इसकी भनक हमीरपुर के कलेक्टर को लगी तो उसने सारी प्रतियां जब्त करके उसमें आग लगवा दी। साथ ही प्रेमचंद को बुलाकर प्रताडि़त किया। फिर दोबारा ऐसी कहानियां न लिखने की कड़ी हिदायत देकर छोड़ दिया। इस घटना से प्रेमचंद काफी व्यथित व निराश हो गए थे। तब उनके मित्र दयानारायण निगम ने उन्हेंं नाम बदलकर प्रेमचंद रखने की सलाह दी और कहा कि उर्दू के बजाय वह ङ्क्षहदी में कहानियां लिखें। इससे उनके जीवन की नई शुरुआत होगी।

    सलाह प्रेमचंद के जीवन में अहम मोड़ लाई

    दयानारायण की सलाह प्रेमचंद के जीवन में अहम मोड़ लाई। इसके बाद प्रेमचंद ने 1914 में ङ्क्षहदी में कहानी लिखने की शुरुआत की। 'परीक्षा' उनकी पहली ङ्क्षहदी कहानी थी। वो हिंदी अखबार 'प्रताप' के विजयदशमी अंक में प्रकाशित हुई थी। जबकि बहुत से विद्वानों का मत है कि उनकी पहली ङ्क्षहदी कहानी 'सौत' थी जो सरस्वती पत्रिका में 1915 में प्रकाशित हुई। कहानी लिखने के साथ पढ़ाई भी जारी रखी। उन्होंने 1915 में इंटरमीडिएट व 1919 में बीए पास किया। वह अंग्रेजी विषय से एमए करना चाहते थे, लेकिन बीमारी व पारिवारिक झंझटों के कारण उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हुई।  प्रेमचंद ने नौकरियों से बार-बार त्यागपत्र दिया। खद्दर का व्यवसाय भी किया। मर्यादा व माधुरी जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। मार्च 1930 में हंस नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। इसका नामकरण जयशंकर प्रसाद ने किया था।

    प्रेमचंद ऐसे बने 'मुंशी'

    हंस पत्रिका के दो संपादक कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी, प्रेमचंद थे। प्रिंट लाइन में दोनों का नाम जाता था। कुछ अंकों के बाद तय हुआ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी नाम ज्यादा स्थान लेता है। अपसी सहमति पर मुंशी, प्रेमचंद छापने का निर्णय लिया गया। साहित्यकार अनुपम परिहार बताते हैं कि त्रुटिवश कुछ अंकों के बाद मुंशी के बाद लगा कॉमा हट गया। इस तरह मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ जुड़ गया और वह 'मुंशी प्रेमचंद' हो गए। प्रेमचंद ने साप्ताहिक पत्र 'जागरण' निकाला। जो 22 अगस्त 1932 को प्रकाशित हुआ लेकिन आर्थिक हानि के कारण 21 मई 1934 को इसे बंद कर दिया। प्रसिद्ध उपन्यास गोदान 10 जून 1936 को प्रकाशित हुआ। इसके 15 दिनों बाद उन्हेंं खून की पहली उल्टी हुई और आठ अक्टूबर 1936 को निधन हो गया।

     

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