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Birth Anniversary: तो ऐसे मुंशी हो गए प्रेमचंद, हिंदी के कथाकार ने Allahabad University से अंग्रेजी में किया था स्नातक

प्रेमचंद का असल नाम धनपत राय था। उन्होंने अपने नाम के आगे कभी भी मुंशी नहीं लिखा। फिर भी पूरी दुनिया में उनकी पहचान मुंशी प्रेमचंद के नाम से ही है। यह कहना है इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डाक्टर संतोष कुमार सिंह का।

By Ankur TripathiEdited By: Published: Sat, 31 Jul 2021 07:00 AM (IST)Updated: Sat, 31 Jul 2021 01:24 PM (IST)
Birth Anniversary: तो ऐसे मुंशी हो गए प्रेमचंद, हिंदी के कथाकार ने Allahabad University से अंग्रेजी में किया था स्नातक
विख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद्र का प्रयाराज से गहरा नाता रहा है, यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की

प्रयागराज, [गुरुदीप त्रिपाठी]। नवाब राय के नाम से उर्दू में लेखन की शुरुआत करने वाले प्रेमचंद का असल नाम धनपत राय था। उन्होंने अपने नाम के आगे कभी मुंशी नहीं लिखा। फिर भी पूरी दुनिया में उनकी पहचान मुंशी प्रेमचंद के नाम से ही है। यह कहना है इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डाक्टर संतोष कुमार सिंह का। वह बताते हैं कि प्रेमचंद के मुंशी बनने के पीछे रोचक किस्सा है।

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डैश गिर गया और छप गया मुंशी प्रेमचंद

हिंदी साहित्य को संरक्षित करने व उसके प्रचार-प्रसार के लिए प्रेमचंद ने हंस प्रकाशन व सरस्वती प्रेस की स्थापना कराई थी। प्रेमचंद के छोटे बेटे अमृत राय अशोक नगर स्थित धूप छांह बंगले से हंस प्रकाशन संचालित करते थे। प्रेमचंद की कहानी 'मानसरोवर को आठ खंडों में हंस प्रकाशन ने ही छापा था। कलम का सिपाही, गोदान, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, सेवा सदन आदि कहानियां भी इसी प्रकाशन में छपी थी। वह बताते हैं हंस पत्रिका के दो संपादक कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी और प्रेमचंद थे। प्रिंट लाइन में दोनों का नाम जाता था। दोनों नाम के बीच में डैश लगाया जाता था। कुछ अंकों के बाद तय हुआ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी नाम ज्यादा स्थान लेता है। सहमति पर मुंशी डैश प्रेमचंद छापने का निर्णय लिया गया। उस वक्त लेटर प्रेस का जमाना था और धातु से बने शब्दों को धागे से बांधकर मशीन पर छपाई के लिए चढ़ाया जाता था। एक बार धागे से बंधा डैश गिर गया और संपादक के रूप में मुंशी प्रेमचंद छप गया। खास बात यह है कि सरल स्वभाव के प्रेमचंद ने कभी इस पर एतराज भी नहीं जताया। इविवि में हिंदी विभाग के डाक्टर सूर्य नारायण बताते हैं कि प्रेमचंद ने साप्ताहिक पत्र 'जागरण निकाला। जो 22 अगस्त 1932 को प्रकाशित हुआ लेकिन आर्थिक हानि के कारण 21 मई 1934 को इसे बंद कर दिया। प्रसिद्ध उपन्यास गोदान 10 जून 1936 को प्रकाशित हुआ। इसके 15 दिनों बाद उन्हेंं खून की पहली उल्टी हुई और आठ अक्टूबर 1936 को निधन हो गया।

इविवि से अंग्रेजी में किया था स्नातक

इलाहाबाद विवि में कला संकाय के डीन और वरिष्ठ साहित्यकार प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं कि मुंशी प्रेमचंद हिंदी के कथाकार थे। कम लोग जानते हैं कि स्नातक में प्रेमचंद ने हिंदी विषय ही नहीं लिया था। उन्होंने 1915 में इंटरमीडिएट व 1919 में बीए पास किया। अंग्रेजी साहित्य, फारसी व इतिहास से उन्होंने स्नातक में वह सेकेंड डिवीजन में पास हुए थे। उन्हेंं इविवि से बीए की डिग्री प्रदान की गई थी। प्रोफेसर हेरंब बताते हैं कि 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना होने के बाद हाईस्कूल, इंटर, स्नातक व परास्नातक की पढ़ाई यहीं से संचालित होती थी। उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान व महाराष्ट्र का विधर्व के क्षेत्र में स्थित समस्त विद्यालयों व डिग्री कालेजों के छात्र-छात्राओं को इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंकपत्र व डिग्री मिलती थी। इसी के तहत प्रेमचंद को इविवि ने डिग्री दी थी। फिर 1921 के एक्ट बनने के बाद उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद बना और बोर्ड ने हाईस्कूल/इंटर तक की पढ़ाई का जिम्मा लिया। जबकि इविवि को आवासीय दर्जा मिला और यहां से उच्च शिक्षा दी जाती थी लेकिन नई व्यवस्था 1925-26 से लागू हो पाई। इसके साथ हर क्षेत्र में नए विश्वविद्यालय बनने लगे और इविवि का अधिकार क्षेत्र कम होता गया।

18 रुपये मासिक पर शिक्षक की नौकरी

डाक्टर सूर्य नारायण बताते हैं कि प्रेमचंद 1899 में द्वितीय श्रेणी में एंट्रेंस (हाईस्कूल) में उत्तीर्ण हुए। फिर 1900 में चुनार में स्थित मिशन स्कूल में 18 रुपये मासिक पर शिक्षक हो गए। यह नौकरी बहुत दिनों तक नहीं रही। इसे छोड़कर दो जुलाई 1900 में बहराइच के सरकारी स्कूल में शिक्षण कार्य प्रारंभ किया। फिर छोड़कर सब डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए थे। इसके तहत प्रतापगढ़ की आरा रियासत में काम किया। फिर कानपुर के एक मारवाड़ी कालेज में शिक्षक बन गए। प्रबंधन से विवाद होने पर उसे भी छोड़ दिया। इसके बाद हमीरपुर आ गए थे।

प्रेमचंद के साहित्य में झलकता 'राष्ट्रीय उत्कर्ष का संस्कार

भाषा विज्ञानी और समीक्षक आचार्य पं. पृथ्वीनाथ पांडेय बताते हैं, 'प्रेमचंद के लेखन की सार्थकता और प्रासंगिकता इस सत्य में है कि उन्होंने देश के मध्यमवर्गीय चरित्र को उसके विस्तार और वास्तविकता में देखने का प्रयास किया है। उनके साहित्य में राष्ट्रीय उत्कर्ष का संस्कार जुड़ा है। भारतीय मध्यमवर्ग का चरित्र अत्यंत जटिल और विभाजित है, वह प्रत्येक परिवत्र्तनकारी शक्ति को सहयोग का आश्वासन भी देता है और पारंपरिक विचारधारा की रक्षा भी करना चाहता है। सामाजिक जीवन-यापन में वह उच्च वर्ग के निकट पहुंचना चाहता है, किंतु आर्थिक विपन्नता के कारण वह आक्रोशपूर्ण होता है।

यथार्थवादी होता है साहित्य : डा. उदय

इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के राजभाषा अनुभाग की तरफ से शुक्रवार को कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद के 141वें जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर शुक्रवार को व्याख्यान का आयोजन किया गया। मुख्य वक्ता हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष डा. उदय प्रताप सिंह ने कहा कि साहित्य यथार्थवादी होता है। जीवन में जो है उसे ही साहित्य में लाना चाहिए।

राजभाषा कार्यान्वयन समिति के संयोजक प्रो. योगेेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि भारत गांवों का देश है। आगे आने वाले समय में गांव बचेंगे कि नहीं ये भी सोचने का विषय है। यदि भारत के गांवों को समझना है तो प्रेमचंद के साहित्य के अलावा कोई दूसरा माध्यम नहीं हो सकता। राजभाषा अनुभाग के अनुवाद अधिकारी ने आज भी कथा सम्राट की कहानियां पढ़ो तो ऐसा लगता है कि सब कुछ अभी घटित हुआ हो। इस दौरान डा. कल्पना वर्मा, डा. दीनानाथ, डा. वीरेंद्र मीणा, डा. विनम्रसेन सिंह, डा. रमेश सिंह, डा. विवेक निगम, डा. सुजीत सिंह, डा. अमितेश कुमार आदि रहे। धन्यवाद डा. आदित्य त्रिपाठी और संचालन अनुवाद अधिकारी हरिओम कुमार ने किया।


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