Premchand Birth Anniversary: प्रगतिशील लेखक संघ की इलाहाबाद में बनी थी योजना, शामिल हुए थे प्रेमचंद
Premchand Birth Anniversary महान कहानीकार व उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद का प्रयागराज से गहरा नाता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के शिक्षक अहमद अली के घर पर आयोजित सभा में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की योजना बनी थी। बैठक में प्रेमचंद ने प्रलेस का अनुमोदन किया था।
प्रयागराज, जेएनएन। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) की स्थापना लखनऊ में प्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचंद के सभापतित्व में हुई थी। हालांकि उसकी योजना इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में बनी थी। जनवरी 1936 में प्रेमचंद एकेडेमी के वार्षिक अधिवेशन में आए थे। अधिवेशन के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के शिक्षक अहमद अली के घर पर आयोजित सभा में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की योजना बनी। उसी बैठक में प्रेमचंद ने प्रलेस का अनुमोदन किया। बैठक में फिराक, दयानारायण निगम, सदगुरुशरण अवस्थी, सज्जाद जहीर मौजूद थे।
एकेडेमी का मिला प्रथम शिखर सम्मान
हिंदी व उर्दू साहित्य को संरक्षित करने के लिए 1927 में प्रयागराज में हिंदुस्तानी एकेडेमी का गठन हुआ। तब प्रेमचंद को एकेडेमी की प्रथम कार्यकारिणी परिषद में भी रखा गया। यहीं 1928 में उन्हेंं एकेडेमी के प्रथम शिखर सम्मान से नवाजा गया। इतना ही नहीं, एकेडेमी के अनुरोध पर उन्होंने जान गाल्सवर्दी के तीन प्रसिद्ध नाटकों 'जस्टिस', 'स्ट्राइफ' तथा 'सिल्वर बाक्स' का हिंदी अनुवाद क्रमश: 'न्याय', 'हड़ताल' और 'चांदी की डिबिया' के नाम से किया। इसके अतिरिक्त हिंदुस्तानी एकेडेमी के अनुरोध पर उन्होंने गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा 'मध्य कालीन भारतीय संस्कृति' पर दिए गए तीन भाषणों का उर्दू में अनुवाद किया।
चिंतामणि के कहने पर निकाली फिरदौस पत्रिका
इंडियन प्रेस के मालिक चिंतामणि घोष ने 1908 में प्रेमचंद को प्रयागराज आमंत्रित किया। उन दिनों प्रेमचंद कानपुर में रह रहे थे। सरस्वती पत्रिका के सह-संपादक अनुपम परिहार बताते हैं कि चिंतामणि चाहते थे कि उनके प्रेस से एक उर्दू पत्रिका प्रकाशित हो। उन्होंने जब अपनी इच्छा प्रेमचंद के समक्ष रखी तो वे खुशी से तैयार हो गए। चिंतामणि घोष ने जानना चाहा कि पत्रिका का नाम क्या होगा? प्रेमचंद ने उस उर्दू पत्र का नाम 'फिरदौस' तय किया और इसके संपादन के लिए मान गए थे।
मित्र ने दिया प्रेमचंद नाम
मुंशी प्रेमचंद की मां आनंदी देवी व पिता मुंशी अजायब राय ने उनका नाम धनपत राय रखा था। अजायब राय लमही डाकखाना में डाक मुंशी थे। जबकि उनके (प्रेमचंद के) ताऊ ने नवाब राय नाम दिया था। प्रेमचंद ने गोरखपुर की रावत पाठशाला से 10वीं तक अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण किया। वह 1899 में द्वितीय श्रेणी में एंट्रेंस (हाईस्कूल) में उत्तीर्ण हुए। फिर 1900 में चुनार में स्थित मिशन स्कूल में 18 रुपये मासिक पर शिक्षक हो गए। यह नौकरी बहुत दिनों तक नहीं रही। इसे छोड़कर दो जुलाई 1900 में बहराइच के सरकारी स्कूल में शिक्षण कार्य प्रारंभ किया। फिर छोड़कर सबडिप्टी इंस्पेक्टर हो गए थे। इसके तहत प्रतापगढ़ की आरा रियासत में काम किया। कानपुर के एक मारवाड़ी कालेज में शिक्षक बन गए। प्रबंधन से विवाद होने पर उसे भी छोड़ दिया। इसके बाद हमीरपुर आ गए।
हमीरपुर के कलेक्टर ने प्रेमचंद की सारी प्रतियां जलवा दी थी
हमीरपुर में 1909-10 में प्रेमचंद ने उर्दू में पांच कहानियों की संग्रह 'सोजे वतन' प्रकाशित कराया। कहानियों के जरिए उन्होंने भारतीय नवयुवकों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया था। इसकी भनक हमीरपुर के कलेक्टर को लगी तो उसने सारी प्रतियां जब्त करके उसमें आग लगवा दी। साथ ही प्रेमचंद को ऐसा न करने की कड़ी हिदायत दिया। इससे वह निराश हो गए। तब उनके मित्र दया नारायण निगम ने उन्हें नाम बदलकर प्रेमचंद रखने की सलाह दी और कहा कि उर्दू के बजाय व हिंदी में कहानी लिखें। इसके बाद प्रेमचंद ने 1915 में इंटरमीडिएट व 1919 में बीए पास किया। वह अंग्रेजी विषय से एमए करना चाहते थे, लेकिन बीमारी व पारिवारिक झंझटों के कारण उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हुई।
प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी लिखने की शुरूआत 1914 में की थी
वरिष्ठ कथाकार डा. कीर्ति कुमार सिंह बताते हैं कि प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी लिखने की शुरुआत 1914 में किया। 'परीक्षा' उनकी पहली हिंदी कहानी थी। वो ङ्क्षहदी अखबार 'प्रताप' के विजयादशमी अंक में प्रकाशित हुई थी। जबकि बहुत से विद्वानों का मत है कि उनकी पहली ङ्क्षहदी कहानी 'सौत' थी जो सरस्वती पत्रिका में 1915 में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद ने नौकरियों से बार-बार त्यागपत्र दिया। खद्दर का व्यवसाय भी किया। मर्यादा व माधुरी जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। मार्च 1930 में हंस नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया।
...और मुंशी बन गए प्रेमचंद
हंस पत्रिका के दो संपादक कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी, प्रेमचंद थे। प्रिंट लाइन में दोनों का नाम जाता था। कुछ अंकों के बाद तय हुआ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी नाम ज्यादा स्थान लेता है। अपसी सहमति पर मुंशी, प्रेमचंद छापने का निर्णय लिया गया। त्रुटिवश कुछ अंकों के बाद मुंशी के बाद लगा कामा हट गया। इस तरह मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ जुड़ गया और वह 'मुंशी प्रेमचंद' हो गए।