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    चंद्रशेखर आजाद के बलिदान की गवाही देता है प्रयागराज, 'बमतुल बुखारा' की आखिरी गोली ने बदली थी 'आजादी' की तस्वीर

    By Swati SinghEdited By: Swati Singh
    Updated: Sat, 22 Jul 2023 02:51 PM (IST)

    Chandrashekhar Azad भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक कहे जाने वाले शहीद चंद्रशेखर आजाद का रिश्ता प्रयागराज से काफी खास है। अपनी जिंदगी का आखिरी दिन उन्होंने प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में बिताया और इसी दिन उन्होंने भारत की आजादी की एक नई तस्वीर उकेरी थी। प्रयागराज चंद्रशेखर आजाद के बलिदान की गवाही आज भी देता है और देश के युवाओं को आजाद जैसा साहसी बनने की प्रेरणा देता है।

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    चंद्रशेखर आजाद के बलिदान की गवाही देता है प्रयागराज

    प्रयागराज, जागरण डिजिटल डेस्क। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक कहे जाने वाले शहीद चंद्रशेखर आजाद वो शख्सियत हैं जिसे सुनकर हमें गर्व होता है। वो बलिदानी जिसने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का नाम बहादुरी, राष्ट्रभक्ति और बलिदान का पर्याय है। देश के लिए उन्होंने अपना बचपन ही कुर्बान कर दिया। अंग्रेजों से लोहा उन्होंने अपने बचपन में लिया था। बचपन से लेकर अपनी जवानी उन्होंने देश के नाम न्यौछावर कर दी।

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    चंद्रशेखर आजाद का प्रयागराज से खास नाता था। आज भी उनकी यादें उत्तर प्रदेश के इस शहर में बसी है। अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद जिन्होंने देश को गोरों से स्वतंत्र कराने के लिए प्राण की आहुति तक दे दी, उनकी स्मृतियों को ही इलाहाबाद राष्ट्रीय संग्रहालय ने ‘कैद’ करके रखा है। इसी संग्रहालय में रखी गई है आजाद की गरजने वाली पिस्तौल 'बमतुल बुखारा'। ये बंदूक वहीं है जिसने अंग्रेजों को भी चकमा दिया था।

    आजाद की बंदूक ने दिया था अंग्रेजों को चकमा

    चंद्रशेखर आजाद की बंदूक ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे और इसी बंदूक को आजाद ने आखिरी में चुना था। उन्होंने अपनी जान तक न्योछावर कर दी, लेकिन अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। कोल्ट कंपनी की अपनी इस पिस्टल को आजाद शान से 'बमतुल बुखारा' कहते थे। इसकी आवाज और गोली निकलना दोनों ने अंग्रेजों को चकमा दिया था।

    आजाद कि 'बमतुल बुखारा' काफी खास थी। इस पिस्तौल से गोली चलने के बाद धुआं नहीं निकलता था। इसलिए अंग्रेज ये नहीं जान पाते थे कि गोलियां कहां से चल रही हैं। शहीद आजाद बड़ी आसानी से पेड़ों के पीछे छिपकर गोलियां चलाते थे और अंग्रेजों को पता ही नहीं चल पाता था कि गोलियां किस ओर से चल रही हैं। इस बंदूक से ही आजाद ने अंग्रेजों का सामना किया था।

    बंदूक की ये है खासियत

    चंद्रशेखर आजाद की बंदूक काफी खास थी। उस वक्त के हिसाब से ये बंदूक अंग्रेजों की तकनीक से भी आगे थी, तभी तो उसकी खासियत से अंग्रेज भी चकमा खा गए थे। कोल्ट कंपनी की पिस्टल काफी खास थी। ये प्वाइंट 32 बोर की पिस्टल हैमरलेस सेमी ऑटोमेटिक थी। इस पिस्टल में आठ बुलेट की एक मैगजीन लगती है और इसकी मारक क्षमता 25 से 30 यार्ड है। इसके साथ ही सबसे बड़ी बात ये थी कि ये उस वक्त की तकनीक से काफी आगे थी। इसको फायर करने पर इसमें धुआं नहीं निकलता था।

    बंदूक के दीदार के लिए पहुंचते है दूर-दराज से लोग

    इलाहाबाद राष्ट्रीय संग्रहालय में बलिदानी चंद्रशेखर आजाद की आखिरी निशानी रखी गई है। ये निशानी यहीं बंदूक है। इसे देखने के लिए दूर-दराज से लोग आते हैं। फिलहाल एक साल से यहां लोग इस बंदूर का दीदार नहीं कर पा रहे हैं। सेंट्रल हाल में रखी उनकी गरजने वाली पिस्तौल 'बमतुल बुखारा' का प्रदर्शन भी नौ महीने से बंद है। अब तक बच्चों समेत 60 हजार से अधिक लोग आए और संग्रहालय में यह सब बिना देखे ही लौट गए। प्रत्येक माह 7000 लोगों के संग्रहालय आने का औसत है। संग्रहालय में प्रवेश करते ही लोगों की नजर सबसे पहले बायीं ओर प्रदर्शित आजाद की पिस्तौल पर पड़ती रही है, क्योंकि इसकी ख्याति विश्वस्तरीय और बच्चों के लिए रोचक है।

    वो पार्क जहां आजाद ने मारी थी खुद को गोली

    प्रयागराज में ही चंद्रशेखर आजाद ने अपनी कसम पूरी की थी। 27 फरवरी 1931 का वो दिन था जब इस पार्क में आजाद ने अंग्रेजों से मोर्चा लिया था। सुखदेव और चंद्रशेखर इसी पार्क में मंत्रणा कर रहे थे, जब अंग्रेजों ने हमला कर दिया। आजाद ने सुखदेव को तो वहां से निकाल दिया, लेकिन वो वहां से जिंदा नहीं निकल पाए।

    चंद्रशेखर आजाद ने एक पेड़ के पीछे छिपकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। अंत में सिर्फ एक गोली बची और उन्हें याद आ गया अपना वह संकल्प और दावा जिसमें कहा था मैं आजाद था, आजाद हूं और आजाद रहूंगा। अंग्रेजों के हाथ नहीं लगूंगा आजाद ही मरूंगा। बस आखिरी गोली अपनी कनपटी पर दाग ली और चिर निद्रा में सो गए। ये पार्क आज भी प्रयागराज में आजाद के बलिदान की गवाही दे रहा है।

    विश्व स्तरीय आजाद वीथिका के लोकार्पण का है इंतजार

    संग्रहालय ने 10 करोड़ रुपये खर्च करके नेशनल साइंस म्यूजियम (कोलकाता) के विशेषज्ञों ने विश्व स्तरीय आजाद वीथिका बनवाई है। सभी कार्य पूरे होने पर चंद्रशेखर आजाद की जन्मतिथि के उपलक्ष्य में पिछले साल 23 जुलाई को कार्यदायी संस्था ने इसे संग्रहालय को सौंपा था। एक साल पूरे होने को हैं लेकिन इसका लोकार्पण नहीं हो सका।

    अब लोगों को चंद्रशेखर आजाद की वीरता की गाथा को सुनने के लिए इसके लोकार्पण का इंतजार है। वीथिका ऐसी बनी है जो संग्रहालय आने वाले पर्यटकों, स्थानीय लोगों और छात्र-छात्राओं की संख्या अनुमानित तीन गुना तक बढ़ा सकती है। वीथिका की ओर वाले पैसेज की दीवारों पर नेशनल साइंस म्यूजियम द्वारा लगवाए गए आकर्षक चित्रों, संदेशों पर भी कागजों से पर्देदारी है। इलाहाबाद का नाता चंद्रशेखर आजाद से खास है।

    अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

    चन्द्रशेखर आजाद भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के स्वतंत्रता सेनानी थे। इनका जन्म 23 जुलाई 1906 मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा नामक स्थान पर हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लोहा लिया था।

    उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में ही अल्फ्रेड पार्क में खुद को गोली मारी थी। 27 फरवरी 1931 को प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लिया था और अपनी बंदूक की आखिरी गोली से खुद की जीवन लीला समाप्त कर ली थी। इसके साथ ही चंद्रशेखर आजाद की पिस्टल भी इलाहाबाद राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है।

    चंद्रशेखर आजाद के पास पिस्टल थी। कोल्ट कंपनी की अपनी इस पिस्टल को आजाद शान से 'बमतुल बुखारा' कहते थे। इसकी आवाज और गोली निकलना दोनों ने अंग्रेजों को चकमा दिया था।

    चंद्रेशखर आजाद की मौत 27 फरवरी 1931 में हुई थी। उन्होंने प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से मोर्चा ले रहे थे और अंत में आखिरी गोली बचने पर, खुद की पिस्टल से स्वंय को गोली मार ली थी।

    चन्द्रशेखर आजाद ने कसम खाई थी कि वे अंग्रेजों के हाथ मरते दम तक नहीं आयेंगे। उन्होंने कसम खाई थी कि आजाद था.. आजाद हैं और आजाद ही रहूंगा। जब अंतिम समय में अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया तो वह उन्होंने स्वयं को गोली मारकर शहीद हो गये। अंत तक वो आजाद थे और आजाद रहे।