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    संस्कारशाला : 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई'

    By JagranEdited By:
    Updated: Wed, 11 Nov 2020 06:53 PM (IST)

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर उसे अन्य प्राणियों के प्रति कुछ दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है। इनमें परहित अथवा परोपकार सर्वोपरि है। जिनके हृदय में परहित का भाव विद्यमान है वह संसार में सब कुछ कर सकते हैं। उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है-

    संस्कारशाला : 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई'

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर उसे अन्य प्राणियों के प्रति कुछ दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है जिनमें परहित अथवा परोपकार सर्वोपरि है। जिनके हृदय में परहित का भाव विद्यमान है वह संसार में सब कुछ कर सकते हैं। उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है-

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    परहित बस जिनके मन माही ।

    तिन्ह कहूं जग दुर्लभ कछु नाही।।

    भगवान द्वारा बनाए गए सारे मानव समान हैं। अत: इनमें परस्पर प्रेम भाव होना चाहिए। एक व्यक्ति पर संकट आने पर दूसरों को सहायता अवश्य करनी चाहिए। अकेले भाति- भाति के भोजन करना और आनंद मग्न रहना तो पशुओं की प्रवृत्ति है। प्राकृतिक क्षेत्र में हमें सर्वत्र परोपकार की भावना के दर्शन होते हैं। सूर्य सबको प्रकाश देता है। चंद्रमा की शीतल किरणें सभी को शीतलता प्रदान करती हैं। मेघ सभी के लिए जल की वर्षा करते हैं। वायु सभी के लिए जीवनदायिनी है। फूल सभी के लिए अपनी सुगंध लुटाते हैं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और नदिया अपने जल को संचित करके नहीं रखती। इस संबंध में कविवर रहीम जी कहते हैं-

    तरुवर फल नहिं खात है , सरवर पियहिं न पान।

    कहि रहीम पर काज हित, संपत्ति सचहिं सुजान।।

    इतिहास एवं पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें परोपकार के लिए महान व्यक्तियों ने अपने शरीर तक का त्याग कर दिया। संसार में अनेकानेक महान कार्य परोपकार की भावना से ही प्रेरित होकर अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। उनके हृदय में अपने देशवासियों की कल्याण कामना थी। महान संतों ने लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर अपना संपूर्ण जीवन समíपत कर दिया।

    परोपकार से मानव के व्यक्तित्व का विकास होता है। परोपकार की भावना का उदय होने पर मानव (स्व) की सीमित परिधि से ऊपर उठकर पर अन्य के विषयों में भी सोचता है। परोपकर भ्रातृभाव का भी परिचायक है। परोपकार की भावना ही आगे बढ़कर विश्व बंधुत्व के रूप में परिणत होती है। परोपकार से मानव को अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। इसका अनुभव सहज में ही किया जा सकता है।

    परोपकार की भावना अनेक रूपों में प्रकट होती है। धर्मशालाएं ,धर्मार्थ, औषधालय, जलाशयों आदि का दान परोपकार के ही रूप हैं। परोपकारी व्यक्तियों का जीवन आदर्श माना जाता है। उनकी कीíत चिरकाल तक बनी रहती है। मानव स्वभावत: यश की कामना करता है। परोपकार के द्वारा ही उसे समाज में सम्मान तथा स्थाई यश की प्राप्ति हो सकती है। महíष दधीचि, महाराजा शिवि, राजा रंतिदेव, राजा बलि आदि जैसे पौराणिक चरित्र आज भी अपनी परोपकार के कारण ही याद किए जाते हैं जिस समाज में जितने महान परोपकारी व्यक्ति होंगे वह समाज उतना ही सुखी होगा।

    तुलसीदास जी की उक्ति परहित सरिस धर्म नहिं भाई से यही निष्कर्ष निकलता है कि परोपकार ही वह मूल मंत्र है जो व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर पहुंचा सकता है। समाज की स्थिति को बनाए रख सकता है तथा राष्ट्र का उत्थान कर सकता है। परोपकार का लोप होने से देश में अशाति और अव्यवस्था फैल जाएगी। अत: वसुधैव कुटुंबकम की भावना को लेकर ही हमें निस्वार्थ भाव से देश एवं समाज की सेवा करनी चाहिए। ठीक ही कहा है-

    सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यंतु ,मा कश्चिद दुख भागभवेत।। -विक्रम बहादुर सिंह, प्रधानाचार्य, ज्वाला देवी सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज गंगापुरी।

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