शॉर्टकट नहीं, दीवानगी से मिलती है शास्त्रीय संगीत में सफलता
प्रयागराज आई प्रख्यात ठुमरी गायिका और पदम्भूषण स्वर्गीय गिरिजा देवी की शिष्या सुनंदा शर्मा ने दिए दैनिक जागरण के सवालों के जवाब।
प्रयागराज : रस, रंग और भाव प्रधान शास्त्रीय संगीत की गायन शैली ठुमरी शास्त्रीय संगीत के मंचों की जान हुआ करती थी, मगर इसका दायरा अब सिमट रहा है। शास्त्रीय संगीत और गायन के प्रति घटती अभिरुचि से इसके प्रति रुझान कम हुआ है। यह चिंता नामी गिरामी ठुमरी गायकों को भी सता रही है। प्रयागराज आई प्रख्यात ठुमरी गायिका और पदम्भूषण स्वर्गीय गिरिजा देवी की शिष्या सुनंदा शर्मा के सामने यह सवाल आया तो उन्होंने भी इसे सहज स्वीकार किया। दैनिक जागरण से बातचीत में उन्होंने साफ कहा कि गायकी की नई पौध में समर्पण की कमी है और शास्त्रीय संगीत के लिए दीवानगी चाहिए। प्रस्तुत है इसी मुलाकात के प्रमुख अंश - जागरण : आमजन में अब ठुमरी कितनी प्रासंगिक है?
सुनंदा : खयाल के बाद ठुमरी उत्तर भारत की सबसे ज्यादा प्रचलित संगीत विधा है। ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की ऐसी जीवंत विधा है जिसके प्रति अब लोगों का रुझान कम हुआ है। या यों कहें कि अब लोगों के पास समय की कमी है। जागरण : इस हालात में नए ठुमरी गायक कितनी रुचि ले रहे हैं?
सुनंदा : बात ठुमरी की हो अथवा शास्त्रीय संगीत की अन्य विधाएं, सभी समर्पण मांगती है। कलाकारों की नई पौध में इसकी बहुत कमी है। मैने अपनी गुरु गिरिजा देवी की सान्निध्य में वर्षो मेहनत की है। नए कलाकार शार्टकट तलाशते हैं। जागरण : युवा कलाकारों को क्या संदेश देंगी?
सुनंदा : टीवी और सोशल मीडिया पर त्वरित सफलता की कहानी आज युवाओं को शार्टकट सिखाती है, लेकिन कामयाबी दिन-रात मेहनत, जुनून और दीवानगी से मिलती है। गुरुओं के सान्निध्य में रहकर ही सफलता मिलती है। जागरण : ठुमरी गायन में किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
सुनंदा : देखिए.. ठुमरी शास्त्र और भाव का सम्मिश्रण है। शास्त्र के बंधन थोड़े ढीले कर दिए जाते हैं, जिसमें उसकी गुणवत्ता तो रहती है लेकिन भाव में लचीले हो जाते हैं। जब भावनाएं बंधनमुक्त होकर तीव्र वेग में बहती हैं तो ठुमरी की उत्पत्ति होती है। जागरण : देश में शास्त्रीय संगीत की दशा दिशा पर क्या कहेंगी।
सुनंदा : फिल्मी गीत हों फ्जूयन या संगीत की अन्य विधाएं, बिना शास्त्रीय संगीत के टिक नहीं सकते। परंपरागत शास्त्रीय संगीत सीखने वाले ही आज देश दुनिया में झंडा फहरा रहे हैं। नृत्य, संगीत और गीत बिना शास्त्र के परवान चढ़ नहीं सकते। इसलिए इसका महत्व यथावत है।
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