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    पुण्यतिथि पर विशेष: जानिए प्रख्यात कवि सुमित्रानंदन पंत ने क्यों बदला था अपना नाम

    By Ankur TripathiEdited By:
    Updated: Tue, 28 Dec 2021 08:00 AM (IST)

    पुण्यतिथि पर विशेष छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ प्रकृति सुकुमार कवि सुमित्रानंदन ने कभी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया लेकिन अभावपूर्ण जीवन से भयभीत रहे। सुखी व संपन्न जीवन पाने के लिए खुद का नाम गोसांई दत्त पंत से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया था।

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    कवि सुमित्रानंदन ने कभी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया, लेकिन अभावपूर्ण जीवन से भयभीत रहे

    प्रयागराज, जागरण संवाददाता। हृदयस्पर्शी लेखन, बेलौस अंदाज व निर्भीक व्यक्तित्व था पद्म विभूषण सुमित्रानंदन पंत का। हिंदी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ प्रकृति सुकुमार कवि सुमित्रानंदन ने कभी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया, लेकिन अभावपूर्ण जीवन से भयभीत रहे। सुखी व संपन्न जीवन पाने के लिए खुद का नाम गोसांई दत्त पंत से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया था। इसका खुलासा उन्होंने 1974 में आकाशवाणी के ''बाल संघ कार्यक्रम में यश मालवीय को दिए साक्षात्कार में किया था।

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    कहीं तुलसीदास की तरह जीना नहीं पड़े अभावों में

    गीतकार यश मालवीय बताते हैं कि मैंने उनसे पूछा कि गोसांई दत्त तो अच्छा नाम है, आपने उसे क्यों बदल दिया? जवाब में सुमित्रानंदन जी ने बताया, ''गोसांई में मुझे गोस्वामी तुलसीदास की झलक दिखती थी। तुलसीदास अद्भुत विद्वान थे, लेकिन उनका जीवन अभाव में बीता था। कहीं नाम में समानता के कारण मुझे भी तुलसीदास जी की तरह दिक्कतें न झेलनी पड़े, इसलिए नाम बदल लिया। 20 मई 1900 को उत्तराखंड के बागेश्वर जिला के कौसानी नामक गांव में जन्मे सुमित्रानंदन पंत पिता गंगादत्त व मां सरस्वती की आठवीं संतान थे। स्नातक की पढ़ाई करने के लिए प्रयागराज आए थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए में प्रवेश लेकर हिंदू छात्रावास में रहते थे। यहां 1919 से 21 तक रहे। यहीं 1926 में 'पल्लव नामक पुस्तक लिखकर छायावाद को स्थापित कर दिया। सरस्वती पत्रिका के सहायक संपादक अनुपम परिहार के अनुसार सुमित्रानंदन ज्योतिष के अच्छे जानकार थे। उन्होंने अपनी मृत्यु की गणना स्वयं कर ली थी।

    बेली रोड के भवन में रहे हरिवंश बच्चन के साथ

    समालोचक रविनंदन सिंह के अनुसार सुमित्रानंदन हिंदुस्तानी एकेडेमी के उपाध्यक्ष रहे हैं। कालाकांकर के राजा अवधेश सिंह के छोटे भाई सुरेश सिंह से उनकी मित्रता थी। सुरेश के आग्रह पर 1930 से 1940 तक कालाकांकर में रहे। वहीं, 1938 तक ''रूपाग नामक पत्रिका निकाली। इसके अलावा काव्य संग्रह गुंजन, ज्योत्सना, युगांत, युग वाणी लिखा। वहां से 1941 में प्रयागराज आए। बेली रोड स्थित भवन में हरिवंश राय बच्चन के साथ रहने लगे। जहां दोनों रहते थे उसका नाम बासुधा (बच्चन-सुमित्रानंद धाम) रखा गया। फिर 1943 में नृत्य सम्राट उदयशंकर के साथ भ्रमण पर निकल पड़े। उदयशंकर नाट्य प्रस्तुति के लिए कल्चरल सेंटर चलाते थे। पंत उनके लिए कविताएं लिखते थे। पंत 1945 पुदुच्चेरी (पूर्व में पांडिचेरी) स्थित अरविंद आश्रम पहुंचे। वहां दो साल रहकर अरविंद दर्शन पर आधारित 'स्वर्ण किरण व ''स्वर्ण धुलि नामक किताब लिखी।

    1947 में मुंबई गए और फिर लौट आए थे प्रयागराज

    सुमित्रानंदन वर्ष 1947 में मुंबई पहुंचे। वहां उमर खय्याम की रुबाइयों का ''मधु ज्वाल के नाम भावानुवाद किया। मुंबई से 1948 में प्रयागराज आकर मित्र कृष्णानंद पांडेय के छह बेली रोड स्थित आवास पर रहने लगे। यहां ''उत्तरा नामक काव्य संग्रह लिखा। फिर 1950 में आकाशवाणी में हिंदी नियोजक का पद मिलने पर दिल्ली चले गए। वहां रजत शिखर, शिल्पी, सौवर्ण गद्य संग्रह व काव्य संग्रह अंतिमा लिखी। सेवानिवृत्त होने पर 1957 में रेडियो में सलाहकार बनाए गए। प्रयागराज आकर स्टैनली रोड स्थित घर में रहने लगे। यहां वाणी व कला और बूढ़ा चांद नामक पुस्तक लिखी। यहीं 28 दिसंबर 1977 को उनका निधन हुआ।

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