Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Dadhikando Mela से British Rule को दी चुनौती, मशाल की रोशनी में कृष्‍ण-बलदाऊ की निकलती थी झांकी

    By Brijesh SrivastavaEdited By:
    Updated: Mon, 22 Aug 2022 02:39 PM (IST)

    उस समय उचित संसाधन के अभाव में मशाल लालटेन की रोशनी में श्रीकृष्ण-बलदाऊ की सवारी निकलती थी। तब भगवान हाथी पर सवार होकर नहीं किसी भक्त के कंधे पर बैठकर निकलते थे। भक्त बारी-बारी से श्रीकृष्ण-बलदाऊ को अपने कंधे पर बैठाकर चलते थे। पीछे लोगों की भीड़ होती थी।

    Hero Image
    ब्रिटिश शासन को चुनौती देने के लिए 1890 से प्रयागराज में दधिकंदो मेला शुरू हुआ था।

    प्रयागराज, जेएनएन। प्रयागराज का दधिकांदो मेला अपने आप में इतिहास समेटे है। दधिकांदो मेला की शुरुआत 1890 में तीर्थ पुरोहित रामकैलाश पाठक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विजय चंद्र, सुमित्रा देवी ने की। मकसद था आम जनमानस को आजादी की लड़ाई के प्रति प्रेरित करके उनके अंदर से अंग्रेजों का भय खत्म करना।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    जयकारा लगाते भक्‍तों का कारवां : उस समय उचित संसाधन के अभाव में मशाल व लालटेन की रोशनी में श्रीकृष्ण-बलदाऊ की सवारी निकाला जाने लगा। तब भगवान हाथी पर सवार होकर नहीं, किसी भक्त के कंधे पर बैठकर निकलते थे। भक्त बारी-बारी से श्रीकृष्ण-बलदाऊ को अपने कंधे पर बैठाकर चलते थे। पीछे जयकारा लगाते हुए भक्तों का कारवां होता था।

    कब होता है दधिकांदो मेला : महाराष्ट्र में गणेश पूजा की तर्ज पर प्रयाग में आम जनमानस को एकजुट करने के लिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के बाद उनकी छठी से दधिकांदो मेला कराया जाने लगा। आज पूर्ण वैभव से आयोजित होता है।

    दधिकांदो मेला का स्‍वरूप बदला, अब राजसी वेशभूषा : दधिकांदो मेला में राजसी वेशभूषा में सजे हाथी पर रखे चांदी के हौदे पर आसीन श्रीकृष्ण-बलदाऊ के दिव्य स्वरूप का दर्शन करने हजारों की भीड़ सड़कों पर जुटती है। इस बार प्रयागराज में पहला दधिकांदो मेला 27 अगस्त को चांदपुर सलोरी मोहल्ले में लगेगा।

    दधिकांदो यानी दही क्रीड़ा : कीडगंज दधिकांदो मेला कमेटी के संरक्षक गणेश केसरवानी बताते हैं कि दधिकांदो का अर्थ है दही क्रीड़ा। जो जन्माष्टमी के बाद श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित होता है। वह बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में हमारे पूर्वजों ने लोगों को आजादी की लड़ाई के प्रति प्रेरित करने के लिए इसकी शुरुआत की। यही कारण है कि यह शहर के सिर्फ कैंट क्षेत्र में आने वाले मुहल्लों सलोरी, तेलियरगंज, सुलेम सरांय व कीडगंज में दधिकांदो मेला होता है, क्योंकि यहां अंग्रेजों का पूरी तरह से कब्जा था। ऐसे में इक्का-दुक्का लोग कोई आयोजन नहीं कर सकते थे, जिसके चलते आम जनमानस को संगठित करने के लिए यह पहल हुई। धीरे-धीरे इसमें लोगों की संख्या बढऩे लगी, इसका संदेश दूर तक गया, जिससे लोगों में अंग्रेजों के प्रति व्याप्त भय खत्म होकर रोष में बदल गया। वह बताते हैं कि 1922 व 27 में अंग्रेजों ने दधिकांदो मेला पर पाबंदी लगाई थी। बावजूद इसके लोग नहीं माने और उन्होंने अपनी परंपरा जारी रखी।

    समय के साथ बढ़ी रंगत : प्रथम दधिकांदो मेला कमेटी चांदपुर सलोरी के अध्यक्ष राकेश शुक्ल (कंचन) बताते हैं कि दधिकांदो मेला की रौनक समय के साथ बदलती गई। आजादी से पहले उसमें बमुश्किल सौ-दो सौ लोगों की भीड़ जुटती थी। आज हजारों-लाखों का जमघट होता था। लालटेन के बाद गैस की रोशनी में कृष्ण-बलदाऊ की सवारी निकलती थी। फिर 60 के दशक में विद्युत की सजावट शुरु होने लगी। मेला को भव्य स्वरूप देने के लिए श्रीकृष्ण-बलदाऊ की सवारी कंधे के बजाय हाथी से निकलने लगी। जबकि 70-80 के दशक में चांदी के हौदे में बैठाकर भगवान की सवारी निकालने का दौर शुरू हुआ। फिर इसमें श्रीकृष्ण की लीला पर आधारित अन्य चौकियां भी शामिल की जाने लगी।

    सामाजिक सरोकारों का देंगे संदेश : दधिकांदो मेला में निकलने वाली चौकियों को देखने के लिए हजारों की भीड़ जुटती है। रातभर लोग सड़क के किनारे खड़े रहकर चौकी देखते हैं। दधिकांदो मेला कमेटियों ने अबकी श्रीकृष्ण के कृतित्व-व्यक्तित्व के साथ सामाजिक सरोकारों पर आधारित चौकियां निकालने का निर्णय लिया है। इसके तहत बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, नारी सुरक्षा, आत्मनिर्भर भारत, पर्यावरण व जल संरक्षण के अलावा आजादी के अमृत महोत्सव पर आधारित चौकियां निकाली जाएंगी।