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    17 अतिपिछड़ी जातियों की अनुसूचित जाति में जाने की आस अधूरी, बोले चौधरी लौटनराम निषाद

    By Ankur TripathiEdited By:
    Updated: Thu, 09 Dec 2021 12:36 PM (IST)

    यूपी की ग्रामीण जनसंख्या में 17 अतिपिछड़ी जातियों की संख्या 17 प्रतिशत से अधिक है जो चुनावी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। 2007 में ये बसपा के साथ थीं तो ...और पढ़ें

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    राजनीतिक दलों ने अनुसूचित जाति के आरक्षण का लालीपॉप दिखाकर राजनीतिक लाभ अब तक लिया।

    प्रयागराज, जेएनएन। 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का मामला डेढ़ दशक पुराना है। राजनीतिक दलों ने अनुसूचित जाति के आरक्षण का लालीपॉप दिखाकर राजनीतिक लाभ अब तक लिया। 17 में से 13 अतिपिछड़ी जातियां निषाद समुदाय की हैं। वर्तमान संसद सत्र में संविधान (अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां) आरक्षण संशोधन विधेयक पेश होने वाला है। देखना है कि इसमें उत्तर प्रदेश की कौन कौन सी जातियां शामिल की जाती हैं। सम्भावना है कि निषाद जातियों के लिए ही यह विधेयक आ रहा हो। यह बात राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव चौधरी लौटनराम निषाद ने कही।

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    यूपी की ग्रामीण आबादी में 17 फीसद से अधिक अति पिछड़े

    संगम नगरी आने पर उन्होंने कहा कि 17 अति पिछड़ी जातियों में 13 उपजातियां- मछुआ, मल्लाह, बिन्द, केवट, धीमर, धीवर, गोड़िया,कहार , कश्यप, रैकवार, मांझी, तुरहा, बाथम आदि निषाद समुदाय की हैं। जिनकी संख्या 12.91 प्रतिशत है। भर, राजभर 1.31 प्रतिशत व कुम्हार, प्रजापति 1.84 प्रतिशत हैं। उत्तर प्रदेश की ग्रामीण जनसंख्या में 17 अतिपिछड़ी जातियों की संख्या 17 प्रतिशत से अधिक है, जो चुनावी दृष्टिकोण से खासी महत्वपूर्ण है। 2007 में ये बसपा के साथ थीं तो 2012 में सपा की तरफ मुड़ गयीं। 2017 में तो इन जातियों सहित अधिकांश गैर यादव पिछड़ी जातियां भाजपा की खेवनहार बन गईं। 2004 से 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का मुद्दा गर्म है। राजनीतिक दलों के लिए ये महज वोटबैंक बनकर रह गयी हैं। राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव ने कहा कि सपा, बसपा की पूर्ववर्ती सरकारों ने केंद्र सरकार को पत्र व प्रस्ताव भेजकर अनुसूचित जाति में शामिल करने की सिफारिश की। इसके बाद भी आजतक इन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिला।

    दस मार्च, 2004 को तत्कालीन सपा सरकार ने निषाद समुदाय की 13 उपजातियों को एससी में सम्मिलित करने की संस्तुति केंद्र सरकार को भेजी। आरजीआई ने सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय के हवाले उत्तर प्रदेश शासन से इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का औचित्य व मानवशास्त्रीय अध्ययन रिपोर्ट मांगा। समाज कल्याण विभाग, उत्तर प्रदेश शासन ने उ.प्र. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान भागीदारी भवन गोमतीनगर, लखनऊ से वृहद सर्वेक्षण कराया।समाज कल्याण विभाग ने औचित्य सहित 403 पृष्ठ का नृजातीय अध्ययन रिपोर्ट 31 दिसंबर,2004 को केन्द्र सरकार को भेजा। पुनः आरजीआई ने 18 बिंदुओं का जवाब मांगा। उत्तर प्रदेश शासन ने 16 मई, 2005 को इन 18 बिंदुओं का जवाब भेजा। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया। केन्द्र सरकार द्वारा निर्णय न लेने के कारण तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की अधिसूचना कार्मिक अनुभाग-2 से 10 अक्टूबर, 2005 को जारी करा दिया। इस निर्णय को असंवैधानिक करार देते हुए डा. भीमराव आंबेडकर पुस्तकालय एवं जनकल्याण समिति गोरखपुर ने उच्च न्यायालय इलाहाबाद खंडपीठ में स्थगनादेश के लिए याचिका दायर कर दिया। उच्च न्यायालय ने 20 दिसम्बर, 2005 को अधिसूचना को स्थगित कर दिया। एससी/एसटी की सूची में किसी भी प्रकार के संशोधन का अधिकार भारतीय संसद के पास निहित है। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 341 व 342 में संशोधन आवश्यक है।

    2007 में सत्ता परिवर्तन के बाद 13 मई,2007 को मायावती मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 30 मई,2007 को पहली ही कैबिनेट बैठक में 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए केन्द्र सरकार के पास विचाराधीन प्रस्ताव को वापस मंगाकर रद्द करने का निर्णय लिया। केन्द्र सरकार ने 6 जून, 2007 को प्रस्ताव उत्तर प्रदेश सरकार को वापस भेज दिया। प्रदेश सरकार ने इसे रद्द कर शून्य कर दिया। निषाद संगठन मायावती सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध धरना प्रदर्शन करने लगे। निषाद जातियों की नाराजगी को देखते हुए 4 मार्च,2008 को प्रधानमंत्री के नाम अर्द्धशासकीय पत्र भेजकर अनुसूचित जाति में शामिल करने का अनुरोध किया।