जन्मतिथि पर विशेष: श्रीलाल शुक्ल दरबारी ने दरबार में रहकर खोल दी थी दरबार की पोल
लखनऊ के अतरौली गांव में 31 दिसंबर 1925 को जन्मे श्रीलाल का प्रयागराज से गहरा लगाव था। इतिहासकार प्रो. हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की। यहां वह पीसी बनर्जी हास्टल में रहते थे
जन्म : 31 दिसंबर 1925 निधन : 28 अक्टूबर 2011
गुरुदीप त्रिपाठी, प्रयागराज। वैद्यजी हों या रुप्पन। सनीचर हों या लंगड़। बड़े पहलवान हों या रंगनाथ। प्रिंसिपल साहब हों या रामाधीन भीखमखेड़वी। ये सभी शिवपालगंज के रहने वाले हैं। इनका जिक्र होते ही जुबां पर एक ही नाम आता है श्रीलाल शुक्ल...। वही श्रीलाल जिन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए राग दरबारी जैसी कालजयी रचना साहित्य को दी। इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. संतोष सिंह कहते हैं कि राग दरबारी यानी सधे शब्दों में कहें तो ऐसा दरबारी जो दरबार में रहकर दरबार की पोल खोलता हाे।
पीसी बनर्जी हास्टल में रहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की थी स्नातक की पढ़ाई
लखनऊ के अतरौली गांव में 31 दिसंबर 1925 को जन्मे श्रीलाल का प्रयागराज से गहरा लगाव था। इतिहासकार प्रो. हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की। यहां वह पीसी बनर्जी हास्टल में रहते थे। उस वक्त पूरे विश्वविद्यालय में पेयजल की सप्लाई एक ही ट्यूबवेल से होती थी। पहली बार श्रीलाल ने ही पानी के लिए साथियों के साथ हड़ताल किया था। श्रीलाल के भतीजे श्रीरंजन शुक्ल बताते हैं कि विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद 1949 में राज्य सिविल सेवा में नौकरी शुरू की।अगस्त 1978 में वह नगर निगम प्रयागराज (पूर्ववर्ती इलाहाबाद) के प्रशासक भी रहे। 1954 से विधिवत लेखन शुरू करने वाले श्रीलाल का वैभव 10 उपन्यास, चार कहानी संग्रह, नौ व्यंग्य संग्रह, एक आलोचना, दो विनिबंध और एक पुस्तक साक्षात्कार में कलमबद्ध है। 28 अक्टूबर 2011 को अपनी इन रचनाओं को पाठकों के हवाले कर दुनिया को अलविदा कह गए।
अधूरी रह गई श्रीलाल की ख्वाहिश
श्रीलाल के भतीजे श्रीरंजन शुक्ल कहते हैं चाचा जी भारतीय न्याय व्यवस्था पर केंद्रित राग दरबारी जैसा दूसरा उपन्यास लिखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कोर्ट-कचहरी से कई फाइलें भी जुटाई थीं। उनका लिखना-पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे। लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी खूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली ‘राग दरबारी’ जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी। राग दरबारी में भाषा का लालित्य जबरदस्त है। खुद श्रीलाल शुक्ल मानते रहे कि लोकजीवन की भाषा बोली में ठिठोली और व्यंग्य घुला हुआ है।