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    Balkrishna Death Anniversary: आर्थिक अंधेरे में गुजरा जीवन फिर भी हुए 'हिंदी के प्रदीप'

    By Ankur TripathiEdited By:
    Updated: Wed, 20 Jul 2022 06:20 AM (IST)

    पं. बालकृष्ण भट्ट के बारे में विद्वान कहते हैं कि हिंदी प्रदीप मासिक पत्रिका में उनकी जान बसती थी। आर्थिक स्थिति हमेशा ठीक नहीं रहती थी। जब हिंदी प्रदीप की प्रतियां बिक जाती थीं तो उससे मिले पैसे से ढाई सौ ग्राम देशी घी खरीद कर घर ले जाते थे।

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    पं. बालकृष्ण भट्ट के बारे में विद्वान कहते हैं कि हिंदी प्रदीप मासिक पत्रिका में उनकी जान बसती थी।

    पं. बालकृष्ण भट्ट की आज पुण्यतिथि

    अमरदीप भट्ट, प्रयागराज। मातृभाषा हिंदी के प्रति इसे अनुराग ही कहेंगे कि पं. बालकृष्ण भट्ट ने इसके लिए जीवन का सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। स्वयं का जीवन तंगहाली में गुजरा, मित्रों से आर्थिक सहयोग भी लेना पड़ता था लेकिन हिंदी प्रदीप जैसी कालजयी पत्रिका को उनके प्रयास से अमरता मिली। लेखक, साहित्यकार, निबंधकार और उपन्यासकार आज भी पं. बालकृष्ण भट्ट को पुण्यतिथि के अवसर पर उसी अपनत्व से याद करते हैं जैसे उनके जीवनकाल में हिंदी का परचम लहराने वालों का साथ मिलता था। भारती भवन पुस्तकालय से भी पं. बालकृष्ण भट्ट को काफी लगाव था।

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    प्रतियां बिकने पर खरीदते थे ढाई सौ ग्राम घी

    पं. बालकृष्ण भट्ट के बारे में विद्वान कहते हैं कि हिंदी प्रदीप मासिक पत्रिका में उनकी जान बसती थी। आर्थिक स्थिति हमेशा ठीक नहीं रहती थी। जब हिंदी प्रदीप की प्रतियां बिक जाती थीं तो उससे मिले पैसे से ढाई सौ ग्राम देशी घी खरीद कर घर ले जाते थे। इसके पीछे प्रतियां बिकने की उनकी खुशी भी होती थी।

    हाईस्कूल तक की पढ़ाई, ज्ञान चार भाषाओं का

    23 जून 1844 को प्रयागराज में बालकृष्ण का जन्म हुआ था और निधन 20 जुलाई 1914 को हुआ। अहियापुर की तंग गली में घर है उनका। पं. बालकृष्ण भट्ट ने मिशन स्कूल में शिक्षा केवल हाईस्कूल तक ही प्राप्त की थी। वहां के प्रधानाचार्य इसाई पादरी थे। हिंदी पर आघात महसूस कर उन्होंने प्रधानाचार्य से विवाद कर लिया था और वहीं से स्कूल छोड़ दिया। फिर घर में ही रहकर अध्ययन करने लगे और हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी का ज्ञानार्जन किया। कायस्थ पाठशाला में संस्कृत के अध्यापक भी हुए।

    भारती भवन पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष स्वतंत्र पांडेय कहते हैं कि बालकृष्ण भट्ट का लेखन और हिंदी के प्रति उनका समर्पण अनुकरणीय है। पत्रिका हिंदी प्रदीप में वह स्थानीय लोगों को जाेड़ने का हर संभव प्रयास करते थे। किसी भी मोहल्ले या अन्य रिहायशी क्षेत्र का नाम जरूर देते थे। अपने लेख कोई भी इस पत्रिका में छपवा सकता था लेकिन शर्त थी कि उसमें हिंदी को प्राथमिकता हो।

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