आचार्य महावीर का प्रयागराज से रहा आत्मिक जुड़ाव, इंडियन प्रेस में गुजारते थे ज्यादातर वक्त
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का प्रयागराज से आत्मीय जुड़ाव था। इंडियन प्रेस प्रयागराज से प्रकाशित पत्रिका सरस्वती के संपादक के रूप में उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य को संस्कार में पिरोकर जन-जन में स्वीकार्यता बढ़ाई। प्रयागराज में उनका अधिकतर समय इंडियन प्रेस में व्यतीत होता था।

प्रयागराज, जेएनएन। हिंदी भाषा और साहित्य का समृद्ध-श्रेष्ठ बनाने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का प्रयागराज से आत्मीय जुड़ाव था। इंडियन प्रेस प्रयागराज से प्रकाशित पत्रिका 'सरस्वती के संपादक के रूप में उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य को संस्कार में पिरोकर जन-जन में स्वीकार्यता बढ़ाई। प्रयागराज में उनका अधिकतर समय इंडियन प्रेस में व्यतीत होता था। अपनी विद्वता से उन्होंने गद्य को सुसंस्कृत, परिमार्जित व प्रांजल बनाया। विशिष्ट अभिव्यक्ति और प्रभावपूर्व प्रस्तुति से साहित्य को नया स्वरूप दिया। द्विवेदी युग के प्रवर्तक आचार्य महावीर हिंदी गद्य के उन निर्माताओं में से हैं, जिनकी प्रेरणा और प्रयत्नों से हिंदी भाषा को संबल प्राप्त हुआ है।
1903 से दिसंबर 1920 तक सरस्वती के संपादक रहे आचार्य
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जनवरी 1903 से दिसंबर 1920 तक सरस्वती के संपादक बने रहे। स्वास्थ खराब होने के कारण उन्होंने स्वत: पद छोड़ दिया। संपादक के रूप में आचार्य महावीर का कार्यकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग माना जाता है। सरस्वती के जरिए अनेक साहित्यकारों को प्रोत्साहित करके आगे बढ़ाया। मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला, सुमित्रानंदन पंत, रामचंद्र शुक्ल जैसे अनेक रचनाकारों की कहानियां, कविताएं सरस्वती में छापकर पहचान दिलाई। आचार्य महावीर हर रचना को अपने अनुरूप संशोधित करके प्रकाशित करते थे। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पंचपरमेश्वर को संशोधित करके प्रकाशित किया था।
बालकृष्ण भट्ट से आत्मीय जुड़ाव
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी कानपुर के जूही व अपने दौलतपुर गांव में रहकर सरस्वती पत्रिका का संपादन करते थे, लेकिन प्रयागराज उनका निरंतर आना-जाना बना रहता था। बालकृष्ण भट्ट से उनका आत्मीय जुड़ाव था। वे उनसे जरूर मिलते थे। साथ ही श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, पं. देवीदत्त शुक्ल के संपर्क में रहते थे। देवीदत्त के कटरा स्थित आवास पर कई बार आना-जाना हुआ। वहां अनेक साहित्यकारों से उनकी मुलाकात होती थी।
...और साहित्य साधना में हुए लीन
रायबरेली के दौलतपुर गांव में जन्मे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पिता रामसहाय द्विवेदी सेना में नौकरी करते थे। आर्थिक दशा अत्यंत दयनीय थी। इस कारण पढऩे-लिखने की उचित व्यवस्था नहीं हो सकी। पहले घर पर संस्कृत पढ़ते रहे, बाद में रायबरेली, फतेहपुर तथा उन्नाव के स्कूलों में पढ़े। आर्थिक स्थिति खराब होने पर पढ़ाई छोड़कर बंबई (अब मुंबई) चले गये। वहां तार का काम सीखा। फिर जीआइपी रेलवे में नौकरी कर ली। अपने कठोर परिश्रम तथा ईमानदारी के कारण इनकी निरंतर पदोन्नति होती गयी। हेड क्लर्क बन गये। नौकरी करते हुए भी आपने अध्ययन जारी रखा। संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी, उर्दू और गुजराती भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। बंबई से इनका तबादला झांसी हो गया। वहां एक अधिकारी से झगड़ा होने पर नौकरी से त्याग-पत्र देकर आजीवन हिंदी साहित्य की सेवा में लगे रहे।
जन्मतिथि को लेकर भ्रांति
ये दुर्भाग्य है कि हिंदी साहित्यजगत को दिशा देने वाले पुरोधा की जन्मतिथि को लेकर तरह-तरह की भ्रांति फैली है। इंटरनेट मीडिया में कहीं उनकी जन्म तारीख 15 मई 1864 दर्ज है। कोई अपने लेख में पांच व छह मई आचार्य महावीर की जन्म तारीख लिखता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने स्वयं अपनी जन्म तारीख नौ मई बताई है।
काशी से प्रकाशित 'जागरणÓ नामक पाक्षिक समाचार पत्र के प्रस्तावना में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की 68वीं वर्षगांठ के बारे में प्रकाशित किया गया। इसमें उनके हिंदी संबंधी कार्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई। इस संबंध में आचार्य द्विवेदी जी ने कृतज्ञता सूचक अपना मार्मिक वक्तव्य प्रयाग से प्रकाशित समाचार पत्र में 'कृतज्ञताÓ के रूप में छपवाया है। फिर उसी को सरस्वती के संपादक पं. देवीदत्त शुक्ल ने जून 1932 के अंक में हू-ब-हू प्रकाशित किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में वह इस प्रकार है--
'मेरी जन्मतिथि वैशाख शुक्ल चार संवत 1921 है। इस हिसाब से नौ मई 1932 को मैं 68 वर्ष का हो गया। अब मैंने 69वें वर्ष में प्रवेश किया है। इस उपलक्ष्य में मुझे अनेक मित्रों और हितैषियों ने बधाइयां दी हैं। कितने ही पत्रों और तारों द्वारा मेरी शुभकामना की गई है। कई समाचार-पत्रों और सामयिक पुस्तकों में भी मेरा अभिनंदन किया गया है। मुझ पर कृपा करने वाले सज्जनों ने कहीं-कहीं समुदाय रूप से भी मेरी हितचिंतना की है। इन सभी सज्जनों, लेखकों, पत्र-प्रेषकों और अभिनंदन करने वालों को मेरे शतश: प्रणाम। मैं उनके चरणों पर भक्तिभाव पूर्वक अपना मस्तक झुकाता हूं। मैं उन्हें अपना मातृ-पितृस्थानीय समझता हूं, क्योंकि स्वाभाविकतया माता-पिता ही अपने बच्चे की वर्षगांठ मनाते हैं.... ।
व्रतशीत शर्मा, साहित्यिक चिंतक
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