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कबूतरों का सरताज बना अलीगढ़, राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भी मारी बाजी

अलीगढ़ में भी कबूतरों को पालने वालों की फौज है। कुछ तो ऐसे हैं जिनका प्रदेश ही नहीं देश भर में भी कोई सानी नहीं है।

By Mukesh ChaturvediEdited By: Published: Wed, 29 May 2019 12:57 AM (IST)Updated: Wed, 29 May 2019 04:17 PM (IST)
कबूतरों का सरताज बना अलीगढ़,  राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भी मारी बाजी
कबूतरों का सरताज बना अलीगढ़, राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भी मारी बाजी

संतोष शर्मा, अलीगढ़। कबूतर जा जा, जा... पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ। साजन फिल्म का यह गाना आपने जरूर सुना होगा। कबूतर सदियों तक न सिर्फ  प्रेम में बल्कि राजनीति कूटनीति और युद्ध में भी विश्वसनीय संदेशवाहक बने रहे हैं। कबूतरों से पहले के संदेश भेजने के तरीकों पर गौर करें तो घुड़सवारों के जरिए संदेश एक से दूसरी जगह भेजे जाते थे, इन तरीकों में बहुत समय लगने के साथ-साथ और भी कई मुश्किलें सामने आती थीं। इन सब वजहों से एक ऐसे माध्यम की जरूरत थी जो तेज होने के साथ-साथ भरोसेमंद भी हो, करीब 3000 साल पहले यह तलाश होमिंग पिजन्स यानी हमेशा घर वापस लौटने वाले कबूतरों पर खत्म हुई। इसके बाद तो कबूतर पालने का शौक इंसानों के सिर चढ़कर बोला। अलीगढ़ में भी कबूतरों को पालने वालों की फौज है। कुछ तो ऐसे हैं जिनका प्रदेश ही नहीं देश भर में भी कोई सानी नहीं हैं। देशी-विदेशी कबूतरों की वैरायटी भी देखने लायक है। अलीगढ़ के कबूतरों ने राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भी बाजी मारी है।

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सबसे बड़े कबूतरबाज

आइटीआइ रोड स्थित इंडस्ट्रीज स्टेट में नीरज माहेश्वरी की हार्डवेयर की फैक्ट्री है। फैक्ट्री के बाहर देखने पर आपको लगेगा ही नहीं कि यहां कबूतर भी पाले जाते हैं। जब आप छत पर जाएंगे तो दूसरी मंजिल से छठवीं मंजिल पर बने कमरे व लोहे के जाल के अंदर कबूतर ही कबूतर नजर आएंगे। इनके यहां ढाई हजार से अधिक विभिन्न नस्लों के कबूतर हैं। इतनी संख्या व देश में किसी कबूतर बाज के यहां नहीं हैं। कबूतरों को पालने का इतना बड़ा सेटअप भी नहीं हैं। इनके यहां ग्रेबाज, स्वर्ख, कलदमे, सफेद, हरे, काले, अंबलसरे, मद्रासी, पंजाबी, ललदमे, कासिनी,  पाकिस्तानी डब वाले कबूतर आदि की 50 से अधिक प्रजाति हैं। ललदमे कबूतर की पूंछ लाल होती है। कल्सरे व तामड़े कबूतर इनके ही यहां हैं। पाकिस्तानी डब कबूतर भी इनके अलावा किसी के पास नहीं हैं।

आसमान का बादशाह है ग्रेबाज

उड़ान भरने के मामले में ग्रेबाज (काबली) सबसे दमदार कबूतर हैं। इतनी ऊंचाई पर उड़ता है कि दिखाई ही नहीं देता। 11 से 12 घंटा उडऩे की क्षमता होती है। मद्रासी कबूतर छत से 10  से 15 फीट की ऊंचाई तक ही उड़ता है।

अमरनाथ में पाए जाने वाला लका और हूमर

बैंक कालोनी में गूंगी माता मंदिर के पास रहने वाले प्रेमकांत माहेश्वरी के पास 300 से अधिक कबूतर हैं। सभी विदेशी नस्ल वाले हैं। इनके यहां अमरनाथ में पाए जाने वाले लका कबूतर हैं। जिसकी पूंछ ऊपर की ओर रहती है। फुदकता भी खूब है। पाउटर कबूतर तो गर्दन को गुब्बारे की तरह फुला लेता है। किंग कबूतर का साइज का देखकर तो चौंक जाएंगे। यह मुर्गी के जैसा  दिखता है। उड़ीसा में डाक विभाग के काम आने वाला हूमर कबूतर भी यहां हैं। प्रेमकांत के अनुसार हूमर को तीन सौ किली मीटर दूर छोड़ दिया जाए तो यह दो-तीन दिन में अपने ठिकाने पर वापस लौट आएगा। मिलिट्री भी हूमर का इस्तेमाल करती है। इनके अलावा सिराजी, पाउटर, नन, मुखी, किंग, मौटीना व जैकोविन आदि नाम के कबूतर भी हैं। इन कबूतरों की प्रतियोगिता खूबसूरती को लेकर होती है।

हर प्रतियोगिता में मारी बाजी

कबूतरों की शहर में प्रतियोगिता भी होती है। इसमें कबूतरों को तय समय में उड़ाया जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता के समय दूसरे शहरों के कबूतर बाजों के चार लोग अलीगढ़ आते हैं। यहां से चार लोग वहां जाते हैं। ये लोग कबूतरों के उडऩे के घंटे नोट करते हैं। जिसके कबूतर अधिक समय तक उड़ते हैं वो ही विजेता घोषित होता है। जिला स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता में भी यही होता है। नीरज ग्रेबाज कबूतरों से मेरठ, मुरादाबाद, मथुरा, शिकोहाबाद, गुन्नौर आदि शहरों के कबूतर बाजों से हुए मुकाबले जीत चुके हैं।

 खुराक भी दमदार

कबूतरों को बच्चों की तरह पाला जाता है। उनके खान-पान और सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। गर्मी में कबूतरों को सरसों, ग्लूकोज, गेहूं की छनन आदि दिया जाता है। जबकि सर्दियों में बाजार व अन्य दाना दिया जाता है। प्रतियोगिता के दिनों में कबूतरों को घी में बनी सोयाबीन की रोटी, बादाम, खमीरा व अन्य मेवा दिए जाते हैं।

कबूतरों का जीवन

सामान्य तौर पर कबूतरों का जीवन 10 से 12 साल होता है। सभी देखभाल व खानपान बेहतर रहे तो कबूतरों 25 साल तक भी जीते हैं।

और भी हैं कबूतरों के शौकीन

शहर में छोटे बड़े 30 से अधिक कबूतरबाज हैं। इनमें कुछ के पास 500 से 700 व अन्य पर 20 से 100 तक कबूतर हैं। मुकेश मांची, मुन्ना भाई, आसिफ भी शहर के प्रमुख कबूतर बाजों में शामिल हैं।

प्रदूषण पड़ रहा भारी

दूषित हो रहे पर्यावरण का बड़ा असर कबूतरों पर भी पड़ रहा है। प्रदूषण के चलते कबूतर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। गर्दन तोड़ बुखार तो कबूतरों की जान तक ले लेता है। इसके चलते उन्हें वैक्सीन भी दी जाती है। 

विश्व का सबसे महंगा कबूतर

दुनिया में एक ऐसा कबूतर भी है, जो आम नही बेहद खास है और इस खास कबूतर की कीमत है 9.7 करोड़।  इस कबूतर को दो माह पहले चाइना के फॉर्मूला वन कार रेसिंग के वल्र्ड चैंपियन लुईस हैमिल्टन ने 1.4 मिलियन डॉलर यानी 9.7 करोड़ में खरीदा है। कबूतर का नाम है अरमांडो है। यह बेल्जियम का कबूतर है, जो लंबी रेस के लिए जाना जाता है। अरमांडो एकलौता लॉन्ग डिसटेंस रेसिंग पीजन है, जो कबूतरों का लुईस हैमिल्टन के नाम से मशहूर है। कबूतर अभी 5 साल का है और रिटायरमेंट के करीब है।

इनका कहना है

मुझे शुरू से ही कबूतर पालने का शोक रहा है। कबूतर पालने का मकसद इनकी विभिन्न प्रजातियों को संरक्षित करना भी है। इन्हें देखकर शुकून तो मिलता ही है ब्लड प्रेशर भी नार्मल रहता है।

- नीरज माहेश्वरी

मैंने 25 कबूतरों से इस शोक की शुरुआत की थी, आज 300 से अधिक कबूतर हैं। सभी कबूतर विदेशी नस्ल के हैं। मेरी सुबह कबूतरों के साथ ही शुरु होती है। नीरज माहेश्वरी की बराबर मैंने किसी प्रदेश में कबूतर बाज नहीं देखा।

- प्रेमकांत माहेश्वरी

बाबा के समय से ही हमारे चार घरों में कबूतर पाले जा रहे हैं। प्रतियोगिताओं में भी भी लेते हैं। नीरज के बराबर मैंने देश भर में कहीं सेटअप नहीं देखा। अधिकांश प्रतियोगिता भी अलीगढ़ के कबूतर जीतते हैं।

- मुकेश माची

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