मुंशी नवल किशोर ने खोले थे 37 पुस्तकालय, ऑक्सफोर्ड को दान में दी किताब Aligarh news
मुंशी नवल किशोर ने उनमें आत्मविश्वास जगाने व हताशा से बाहर निकालने के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया। इससे उनकी ख्याति एशिया से लेकर यूरोप तक हो गई।
अलीगढ़, जेएनएन। 1857 का गदर विफल होने के बाद भारतीय मायूस था और मन अशांत। हौसला टूट चुका था और हार स्वीकार कर ली। ऐसे में संपन्न घराने से ताल्लुक रखने वाले मुंशी नवल किशोर ने उनमें आत्मविश्वास जगाने व हताशा से बाहर निकालने के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया। इसके लिए लखनऊ के वजीरगंज में उत्तर भारत की पहली प्रिटिंग प्रेस (मुंशी नवल किशोर प्रेस) की स्थापना की। इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म की पुस्तकें छापनी शुरू कीं। बेहद सस्ती दरों पर रामायण, कुरान, बाइबल व गुरुग्रंथ साहेब समेत तमाम पुस्तकों का हिंदी व उर्दू में अनुवाद कराकर आम जनमानस तक पहुंची। जरूरत मंदों तक मुफ्त किताबें पहुंचाईं। इससे उनकी ख्याति एशिया से लेकर यूरोप तक हो गई। उनकी प्रेरणा से देशभर में 37 पुस्तकालय खुले। इस प्रेस से प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी को दो हजार पुस्तकें दान में दी। एक समय यह भारत की सबसे बड़ी व दुनिया की दूसरी प्रेस बन गई।
सासनी से लखनऊ तक
मुंशी नवल किशोर का जन्म तीन जनवरी 1836 को सासनी (तब अलीगढ़ में) के ब्राह्मण (भार्गव) परिवार में हुआ। बचपन से ही पत्रकारिता व व्यापार में रुचि थी। पिता का नाम पंडित यमुना प्रसाद भार्गव व मां का यशोदा देवी था। पिता सासनी के संपन्न जमींदार थे। दादा पंडित बाल मुकुंद संस्कृत के विद्वान। सासनी में आज भी भार्गव परिवार की ख्याति है। मथुरा के गांव रेड़हा में उनकी ननिहाल थी, कुछ लोग उनका जन्म ननिहाल में ही बताते हैं। शुरुआती दिन ननिहाल में बीते। छह साल की उम्र में सासनी आए। हिंदू, उर्दू व फारसी की दीक्षा ली। अंग्रेजी की पढ़ाई के लिए पिता ने आगरा भेज दिया। छात्र जीवन से पत्रकारिता में रुचि हो गई और उर्दू अखबारों में लिखना शुरू कर दिया। 14 साल की उम्र में सरस्वती देवी से उनका विवाह हो गया। बाद में बेगम साहिबा नामक मुस्लिम महिला से भी शादी की। 1854 में लाहौर जाकर कोहिनूर नामक अखबार में नौकरी की। कोहिनूर के संपादक मुंशी हरसुख राय के साथ काम करते हुए पंडित नवल किशोर से मुंशी नवल किशोर हो गए। यहां अखबार व छापेखाने के कारोबार को समझा। 1856 में आगरा लौटकर साप्ताहिक अखबार 'सफीर-ए-आगरा ' शुरू किया। 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ गदर शुरू हो गया, ऐसे में छोटे अखबार का जिंदा रहना संभव नहीं था। रेलवे रोड स्थित भारत प्रकाशन के मालिक एवं डीएस कॉलेज के हिंदी विभाग से सेवानिवृत डॉ. रमेश चंद्र शर्मा का कहना है कि 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने कुचल दिया। तमाम धार्मिक ग्रंथ व अन्य पुस्तकें नष्ट हो गईं। एक पत्रकार होने के नाते उन्हें भारतीयों की आंतरिक पीड़ा का भी अहसास था। ऐसे में आगरा से काम समेटकर लखनऊ पहुंच गए। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक विरासत को किताबों में समेटने का प्रण लिया। पहले 'अखबार-ए-अवध ' शुरू किया। 23 नवंबर 1958 को नवल किशोर प्रेस की स्थापना की। इसमें हर भाषा के लेखकों की किताबें छापीं। बाद में यह प्रेस हजरतगंज में स्थापित हुई। इसमें प्राचीन, एतिहासिक व धार्मिक किताबों को हिंदू और उर्दू में प्रकाशित किया। उनकी प्रेस में छपी स्त्री सुबोधिनी, रामायण, सूरसागर समेत तमाम किताबें आज भी दिखाई दे जाती हैं। कुरान और हदीस समेत कई अहम इस्लामी किताबें छापीं। 19 फरवरी 1895 में उनकी मृत्यु हो गई।
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