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धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज ने हाथरस से 'धर्म की जय हो का किया था शंखनाद

धर्मसंघ की स्थापना करने वाले करपात्री महाराज ने साधना के लिए यही स्थान चुना था। जानकारों के अनुसार वे 1942 में हाथरस आए।

By Mukesh ChaturvediEdited By: Published: Tue, 21 Jul 2020 08:01 PM (IST)Updated: Tue, 21 Jul 2020 08:01 PM (IST)
धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज ने हाथरस से  'धर्म की जय हो का किया था शंखनाद
धर्मसम्राट करपात्री जी महाराज ने हाथरस से 'धर्म की जय हो का किया था शंखनाद

केसी दरगड़, हाथरस।  धर्मसम्राट स्वामी करपात्री महाराज का ब्रज की देहरी काका की नगरी हाथरस से गहरा रिश्ता रहा है। 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण होÓ, जैसे नारों का उद्घोष उन्होंने यहीं से किया। धर्मसंघ की स्थापना करने वाले करपात्री महाराज ने साधना के लिए यही स्थान चुना था। जानकारों के अनुसार वे 1942 में हाथरस आए। संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए आगरा रोड स्थित श्रीकृष्ण ब्रह्मचर्य आश्रम संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की। इसी महाविद्यालय में बनी गुफा (बेसमेंट) में रहते थे। 

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धर्म संघ व रामराज्य परिषद 

स्वामी करपात्री का जन्म वर्ष 1907 में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी ग्राम में सनातनधर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण रामनिधि ओझा व शिवरानी के आंगन में हुआ था। बचपन में उनका नाम हरि नारायण रखा गया था। धर्मसम्राट के नाम ख्यातिप्राप्त करपात्री महाराज ने  1926 में ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा लेकर हरिद्वार चले गए। एक साल बाद हिमालय पर तपस्या की। इसके बाद संन्यास ग्रहण कर लिया। शहर के लोगों की मानें तो वर्ष 1931 में दंड ग्रहण कर स्वामी हरिहरानंद सरस्वती कहलाए। 1940 में धर्मसंघ की स्थापना की और इसका मुख्यालय वृंदावन बनाया।

यमुना सफाई को चलाया आंदोलन 

गोरक्षा, नारी शिक्षा, पर्यावरण, गंगा व यमुना की सफाई से जुड़े आंदोलन चलाए। 1943 व 1944 में विश्व कल्याण की कामना के साथ देशभर में महायज्ञों का अनुष्ठान कराया। इस बीच धर्म संघ शिक्षा मंडल एवं संस्कृत महाविद्यालयों की स्थापना आदि के साथ धार्मिक कार्यों में जुटे रहे। वर्ष 1950 में रामराज्य परिषद की स्थापना की। वर्ष 1957 में ङ्क्षहदी रक्षा आंदोलन चलाया। 1966 में गोरक्षा महाअभियान समिति का गठन कर दिल्ली में प्रदर्शन किया तो जेल भी गए। स्वामी करपात्री महाराज ने धर्म संस्कृति, भक्ति, दर्शन, राजनीति आदि विषयों पर 35 उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की। चारों वेदों के भाषा लेखन में जुटे रहे। सात फरवरी 1982 को केदारघाट वाराणसी में ब्रह्मलीन हो गए।

 बर्तन का त्याग करने पर बन गए करपात्री

स्वामी हरिहरानंद सरस्वती ने संस्कृत महाविद्यालय में साधना के दौरान पात्र (बर्तन) का त्याग किया। वे कर (हाथों) में लेकर भोजन आदि ग्रहण करते थे। यहीं से उनका नाम करपात्री महाराज पड़ा। 1974 में सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया।

घर पर पूजा कर मनाएं जन्मोत्सव

करपात्री महाराज के जन्मोत्सव पर हर साल गुड़हाई वाला पेच स्थित श्रीकृष्ण अरोरा काका बाबू के प्रतिष्ठान पर कार्यक्रम होता था। कोरोना संक्रमण के कारण पारंपरिक कार्यक्रम नहीं होगा। काका बाबू ने अनुयायियों से अपील की है कि घर पर ही रहकर महाराज के छवि चित्र की पूजा अर्चना कर जन्मोत्सव मनाएं। वेदभगवान सनातन धर्म सभा के महामंत्री जयशंकर पाराशर ने बताया कि उनके जन्मोत्सव पर हर साल कार्यक्रम होते थे लेकिन इस बार लॉकडाउन के चलते कुछ नहीं हो पा रहा है। महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.रजोमूर्ति शर्मा ने बताया कि करपात्री महाराज यहां आए थे। उन्होंने यहां पर आश्रम चलाया और बरगद के पेड़ के नीचे चबूतरे पर अपने शिष्यों के साथ सत्संग करते थे। 


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